Tuesday, April 6, 2010

ग्रन्थ साहिबजी एवं गीता - 23

श्री जपजी साहिब एक परम पथ है

जपजी के माध्यम से आदि गुरु नानकजी साहिब एक ऐसा परम पवित्र मार्ग दिखाते हैं जो मनुष्य को
रूपांतरित करता है और भोग - योग , भोग - भक्ति को अलग - अलग दिखाते हुए उस को भी दीखता है
जहां दोनों मिलते भी हैं । गीता कहता है [ गीता श्लोक -16.12 ] --- मनुष्य दो प्रकार के होते हैं ; एक वे हैं जो अपनें को प्रभु को अर्पित कर दिए होते हैं , जिनका हर काम प्रभु को अर्पित होता है और दुसरे वे हैं जो अपनें को करता समझ कर संसार में जीते हैं । स्वयं को करता समझनें वाला ब्यक्ति , भोगी होता है जिसकी प्रभु में आस्था न के बराबर होती है । भोगी प्रभु को भोग दाता के रूप में समझता है ।
जो कुछ भी इस संसार में है , वह भोगी के ही पास में है , योगी के पास क्या है ?
मंदिर बनवाता है - भोगी , सोनें की मूर्ती बनवाता है - भोगी , मंदिर में पुजारी बैठाता है - भोगी । इस संसार का मालिक है भोगी और हर पल सिकुड़ा सा रहता है - उसे भय है की उसके पास जो कुछ है , वह कहीं उससे छीन न जाए । कामना - मोह की जंजीर में
इस तरह बंधा है की जिस तरफ भी रुख करता है , उसे तकलीफ होती है ।
जो उसके पास हैं , उसके जानें की सोच , जो उसके पास नहीं है , उसके होनें की चिंता , उस ब्यक्ति के माथे के पसीनें को सूखनें नहीं देते । दूसरी तरफ योगी को देखिये जो जहां बैठ गया , आँखें बंद करली , जपजी का सुमिरन करर्ते हुए परम आनंद में अपनें को देखता है - ऐसे ब्यक्ति को सारा जहां मुस्कुराता हुआ दिखता है , और प्रभु भी ऐसे ही लोगों के संग - संग रहते हैं ।

जपजी साहिब का पाठ करना एक आम बात है , जपजी का पाठ करते - करते स्वयं को जपजी में अर्पित करना आम बात नहीं है ।
वह जो जपजी में अपना -----
तन ....
मन ....
बुद्धि को अर्पित कर देता है , उसे मिलती हैं ऐश्वर्य आंखें जिनसे दिखता है वह सब जो भौतिक आँखों से नहीं देखे जा सकते । इस प्रकार के लोग होते हैं आदि गुरु नानकजी जैसे जो .....
प्रभु से प्रभु में अपनें को देख कर संतुष्ट होते हैं ।

====== एक ओंकार सत नाम ========

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