Wednesday, April 7, 2010

श्री ग्रन्थ साहिबजी एवं गीता - 24

जपजी का मूलमंत्र एक ऊर्जा क्षेत्र बनाता है



[क] वैज्ञानिकों को अब पता चला है - वासना में मनुष्य के मस्तिष्क में एक जगह संवेदना उठती है और प्यार में छः जगह संवेदना उठती है ।

[ख] प्यार एवं वासना में केवल एक अंतर होता है - प्यार के पीछे कोई कारण नहीं होता और वासना के पीछे कारण होता है ।

[ग] सामान्य ब्यक्ति में आतंरिक ऊर्जा की आब्रिती 350 cycles per second की होती है जबकि ध्यान में उतारे योगी के अन्दर यह आब्रिती 200,000 cycle/second की हो जाती है जहां वह योगी अपनें को शरीर से बाहर होने जैसा अनुभव करता है और
उसे इस स्थिति में प्रभु के होनें का आभाष होनें लगता है ।

एक हमारे मित्र हैं , कहते हैं - जपजी के पाठ करनें से क्या होगा ? अब मैं उनको क्या बताऊ ? मैं उनकी बातों में उलझना नही चाहता क्योंकि उलझन से सुलझन नहीं
मिलती । जपजी का अर्थ लगानें वाला कभी जपजी का मजा नहीं ले सकता जप जी की धारा में जो बहता रहता है वह अर्थ लगाता ही नही , वह तो जप-आनंद में होता है ।
भाषा बुद्धि की उपज है , और प्रभु ह्रदय के भावों में होता है । चाह रहित भाव , प्यार , श्रद्धा , आत्मा एवं प्रभु का स्थान मनुष्य के देह में ह्रदय है [ गीता - 10.20,13.22, 15.7, 15.11 ] , प्यार करनें वाला सोचता नहीं है , वह यह भी
नहीं जानता की वह क्या कर रहा है ?



श्री नानकजी साहिब एक ब्यापारी थे , अपनी दूकान पर बैठे - बैठे प्रभु के जाप में उनको वह मिल गया जो अन्य योगियों को कठिन तप से भी नहीं मिल पाता । सुमिरन करनें से , जाप करनें से वह स्थान एक निर्विकार ऊर्जा से भर जाता है , जिसमें इतना आकर्षण होता है की यदि कोई खोजी उस क्षेत्र में आ जाए तो उसे कुछ - कुछ होनें लगता है और उस स्थान को छोड़ना नहीं चाहता ।

परम प्यार में डूबे भक्त द्वारा जिस स्थान पर जपजी का पाठ किया जाता है वह स्थान तीर्थ बन जाता है ।



===== एक ओंकार सत नाम ======

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