Tuesday, April 20, 2010

जपजी साहिब - 1

सोचै सोचि न होवई
जो सोंची लख बार

जपजी साहिब के माध्यम से आदि गुरु श्री नानकजी साहिब कहते हैं ......
सोचनें से वह सोच नहीं पैदा होती .....
चाहे कोई लाख बार ही क्यों न सोचे ।

श्री नानक जी साहिब की बात को समझनें के लिए यह जरुरी है की समझनें वाले के पास गुरु जैसा परम पवित्र ह्रदय चाहिए । गुरु जैसे ह्रदय के लिए जरुरी है तन , मन एवं बुद्धि में वह ऊर्जा प्रवाहित हो रही हो जैसी ऊर्जा आदि गुरु के जिस्म में बहती रहती थी ।

सोचनें से वह सोच नहीं आती जो प्रभु की ऊर्जा से भर दे - यह बात आदि गुरु श्री नानकजी साहिब कहरहे हैं । सोच क्या है ? सोच है , बुद्धि का तत्त्व , ऎसी बुद्धि जो गुणों के प्रभाव में हो , उसमें सोच आती है ।
गीता कहता है -- जब तक गुणों का प्रभाव मनुष्य के ऊपर है , तब तक वह ब्यक्ति प्रभु - ऊर्जा से नहीं भर सकता ।
जिस मन - बुद्धि में गुणों की ऊर्जा बहती है , उस मन - बुद्धि में निर्विकार ऊर्जा नही बह सकती और बिना निर्विकार ऊर्जा के प्रभु की लहर नही उठती ।

आदि गुरु श्रीनानक जी साहिब सीधी बात कह रहे हैं जिसको समझनें के लिए बहुत अधिक सोच की जरुरत नहीं है । गुरूजी साहिब कहते हैं - अपनी सोच को देख की तेरी सोच तेरे को किधर ले जाना चाह रही है ?
सोच एक कस्सी जैसी है जो सबको अपनी तरफ खिचती है , ऐसी स्थिति में समर्पण का भाव कैसे आ सकता है और बिना समर्पण भाव के प्रभु की प्रीति कैसे भर सकती है ?

मन - बुद्धि के आधार पर परमात्मा मय होना संभव नहीं , हाँ - मन बुद्धि से परमात्मा की ओर रुख करना उत्तम है लेकीन कुछ दूरी के बाद मन - बुद्धि की ऊर्जा बदल जाती है ।
गीता कहता है .......
ब्रह्म की अनुभूति मन - बुद्धि सीमा से परे की है और एक समय में एक साथ प्रभु एवं भोग भावों को एक बुद्धि में रखना संभव नहीं है [ गीता - 2।42 - 2.44, 12.3 - 12.4 ],
गीता की यह बात जो कह रही है वही बात जपजी मंत्र एक में , आदि गुरु श्री नानकजी साहिब कह रहे हैं ।
सोच करते करते सोच करता जब सोच से परे निकल जाता है तब जो आयाम उसे मिलता है वह होता है -
प्रभु का आयाम ।

प्रभु सर्वत्र है , प्रभु से पभु में सब है , प्रभु सब में है , प्रभु सब से दूर भी है एवं समीप भी है लेकीन क्या
कारण है की प्रभु मय सदियों बाद कोई एक योगी होता है और ऐसे योगी दुर्लभ हैं ।
भोग का गुरुत्वाकर्षण मनुष्य को प्रभु की ओर होनें नहीं देता ....
राग , भय , क्रोध एवं अहंकार मनुष्य को प्रभु से दूर रखता है ......
जब अपना - पराया का भाव समाप्त हो जाता है .....
जब हाँ - ना की भाषा समाप्त हो जाती है ....
जब सब को आत्मा - परमात्मा से आत्मा - परमात्मा में देखा जाता है ,
तब वह ब्यक्ति .....
सोच से परे होता है और वहाँ उसे -----
जो मिलता है वह .....
ब्यक्त किया नहीं जा सकता ।

==== एक ओंकार सत नाम ======

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