Friday, April 2, 2010

श्री गुरु ग्रन्थ साहिबजी एवं गीता - 18

जपजी साहिब मूलमंत्र चरण - 10 ..... जपु

अभीतक जपजी के मूलमंत्र में हमनें देखा ......
एक ओंकार
सत नाम
करता पुरुष
निर्भाऊ
निर्बैर
अकाल मूरत
अजुनी
सैभं
गुरु प्रसाद , और अब देखनें जा रहे हैं दसवां सोपान - जपु ।
आदि गुरु इशारा कर रहे हैं - गुरु प्रसाद कोई बस्तु नहीं की गए दूकान पर और खरीद ली । गुरु प्रसाद
न मंदिर में है न गुरु द्वारे में , गुरु प्रसाद तो भक्ति का फल है जो तब मिलता है जब अपरा भक्ति से
परा में प्रवेश मिलता है । गुरु प्रसाद से परा भक्ति प्रारम्भ होती है और तब भक्त की पीठ भोग की ओर
होती है और आँखें प्रभुमें ।
आदि गुरु कहते हैं --- नाम का जाप करो , जाप करते रहो , जाप करते करते वह घडी आ ही जायेगी जब
तेरी सुमिरन आदि परमं गुरु को बाध्य कर देगी प्रसाद देनें के लिए ।
श्री गुरु नानकजी जप करनें की बात कहते हैं और गीता में परम श्री कृष्ण कहते हैं ----
यज्ञों में जप यज्ञ , मैं हूँ -- गीता श्लोक - 10.25 अब आप सोंचे की जप करनें से क्या होता है ?
गीता में अर्जुन प्रभु से पूंछते हैं [ गीता - 6.33 - 6.34 ] , मैं अपनें मन को कैसे शांत करूँ ? प्रभु कहते हैं --
गीता श्लोक - 6.26 , 6.35 में की तेरा मन जहां - जहां रुकता है , उसे वहाँ - वहाँ से उठाकर प्रभु पर
केन्द्रित करनें का अभ्यास कर , ऐसा करनें से तेरा मन शांत होगा और तूं बैराग्य में पहुँच कर परम
सत्य को समझ लेगा ।

जप एक ध्यान विधि है जो तन , मन एवं बुद्धि को निर्विकार करती है , निर्विकार मन - बुद्धि में प्रभु बसता है । प्रभु श्री कृष्ण क्यों कह रहे हैं - जप यज्ञ , मैं हूँ , क्योंकि यज्ञों में जप एक सरल यज्ञ है ।
यज्ञ को भी समझना जरुरी है - यज्ञ शब्द का अर्थ है - कर्म में तन , मन एवं बुद्धि का प्रभु पर केन्द्रित रहना ।
जब मनुष्य कुछ कर रहा होता है तब उसका तन कहीं और , मन कहीं और एवं बुद्धि तर्क - बितर्क में
उलझी होती है , ऐसे कर्म भोग कर्म होते हैं लेकीन जिस कर्म में तन , मन एवं बुद्धि प्रभु पर केन्द्रित होते हैं ,
वह कर्म , यज्ञ होते हैं ।
सुमिरि सुमिरि जग उतरही पारा

===== एक ओंकार सत नाम =====

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