Sunday, April 25, 2010

जपजी - 6

तीरथि नावा जे तिसु भावा ....
विणु भाणे कि नाइ करी ....
गुरा इक देहि बुझाई ............
सभना जीवा का इकु दाता ।

उसकी इच्छा का स्नान , स्नान है ...
वरना क्या फ़ायदा ....
हे ! सत गुरु .....
मुझे इक बात समुझा दे .....
कि सभी जीवों का एक ही श्रोत है ।

परम हंस श्री राम कृष्ण जी के एक शिष्य थे , जो बहुत बड़े धनवान भी थे । एक दिन सेठ जी गुरूजी से बोले -
गुरूजी मैं काशी गंगा स्नान करनें जा रहा हूँ , कैसा रहेगा ? गुरु जी बोले , उत्तम विचार है लेकीन एक बात पर सोचना
गंगा - तट पर बहुत से पेड़ हैं , शायद तुम देखे भी होगे । जब तुम गंगा में दुबकी लेगा तब तेरे सभी पाप ऊपर इन पेड़ों पर लटक जायेंगे और जब तेरा सर गंगा - जल से बाहर आयेगा तब पुनः तेरे सभी पाप तेरे सर में समा जायेंगे । जाओ , विचार उत्तम हैं , लेकीन ज़रा इस बात पर भी सोच लेना कि गंगा स्नान से कैसे फ़ायदा हो सकता है ?

गंगा के किनारे हिन्दुओं के तीर्थ हैं जहां स्नान करनें के अपनें - अपनें महत्व हैं ।
तीर्थ उनको कहते हैं जहां से पीठ पीछे भोग संसार दिखता है और आगे प्रभु का आयाम [ गीता - 2.69 ] , अर्थात तीर्थ सम भाव से परिपूर्ण स्थान हैं । जैन परम्परा में सत गुरु को तीर्थंकर कहते हैं , तीर्थंकर अर्थात वह , जो उस पार ले जा सके ।
जैसे चौबीस घंटों के रात - दिन में संध्या की जगह है जहां न रात होती है न दिन वैसे भोग - प्रभु के मध्य तीर्थों का स्थान है जहां न भोग होता है और न ही भगवान् लेकीन जहां से एक कदम आगे चलनें पर भगवान् का आयाम मिल जाता है .

तीर्थ उनको कहते हैं जहां पहुंचनें पर -----
तन , मन , बुद्धि निर्विकार ऊर्जा से भर जाते हैं .....
जहां न तन का पता होता है , न मन का ....
जहां पीठ पीछे भोग संसार होता है और ....
सामनें प्रभु का आयाम ।

आदि गुरु श्री नानकजी साहिब जपजी के माध्यम से कहते हैं -----
चाह के साथ यदि तूं तीर्थ स्नान करनें जा रहा है , तो वह बेकार है ......
तीर्थ स्नान यदि तूं भिखारी के रूप करने जा रहा है तो वह बेकार है .....
तीर्थ स्नान यदि तूं परम प्यार में प्रभु को धन्य बाद देनें के रूप में करनें जा रहा है तो ....
वह स्नान परम , स्नान है ।

=== एक ओंकार सत नाम =====

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