Thursday, April 22, 2010

जपजी - 3

गावै को जापै दिसै दूरि....
गावै को वेखै हादरा हदूरि....
कथना कथी न आवै तोटि...
कथि कथि कथी कोटी कोटि कोटि ॥

आदि गुरूजी साहिब यहाँ जपजी के माध्यम से अपने अनुभव को ब्यक्त कर रहे हैं , कुछ इस प्रकार -----
जो अपने और उसके बीच कुछ दूरि देखता है .....
वह , उसे गाता है ,
करोड़ों बार गानें वाले , करोड़ों हैं , उसके ....
लेकीन उसका अंत कहाँ है ?

प्रभु से जो तन , मन एवं बुद्धि से जुड़ता है वह उसे अपनी स्मृति में बैठाना चाहता है और यह काम अभ्यास से संभव है । गीता में अर्जुन परम श्री कृष्ण से पूछते हैं - हे प्रभु ! मैं आप के उपदेश को नहीं समझ पा रहा हूँ क्योंकि मेरा मन अस्थीर है , आप कृपया ऎसी युक्ती बताएं जिससे मेरा मन शांत हो सके ?
प्रभु कहते हैं - तेरा मन जहां - जहां रुकता हो उसे वहाँ - वहाँ से हटा कर मेरे ऊपर केन्द्रित
करनें का अभ्यास करो , ऐसा करनें से तेरा मन शांत हो जाएगा और तूं बैराग्य में होगा --- देखिये गीता सूत्र - 6.26, 6.33 - 6.35 तक ।

गीता कहता है ----

वह सब के अन्दर है , सब के बाहर है ...
वह सब के समीप में है .....
वह सब से दूर भी है , और ....
सभी चर - अचर भी वही है ----- गीता - 13.15
गीता यह भी कहता है ------
वह सनातन अब्यक्त भाव से परे है ....
वह अब्यक्त अक्षर है .....
वह भावातीत है ---- गीता - 8.20 - 8.21 , 7.12 - 7.13 , 2.16
कौन गाता है ?
इस बिषय पर आप सोचना । मीरा , परम हंस जी नाचते थे और गाते थे , लेकीन कब ?
जब उनका सम्बन्ध क्रमशः कन्हैया एवं माँ काली से टूट जाता था , तब । जब तक प्रभु भक्त में उतारा होता है तब तक वह भक्त सोता रहता दिखता है पर वह होता है समाधि में और जब उसकी समाधी दूटती है तब वह भक्त कस्तूरी मृग जैसा हो उठता है , कभी नाचता है , कभी गाता है और भागता रहता है , अपनें समाधी को पुनः प्राप्त करनें के लिए ।
समाधि की अनुभूति भक्त को मनुष्य से प्रभु बना देती है जिसका परम आनंद
भी , दूसरा नाम है ।

आदि गुरु श्रीनानक जी साहिब भी गा रहे हैं और गाते - गाते पंजाब से जेरुसलेम तक की यात्रा की और
काशी से काबा तक गाते रहे एवं करबला में भी जा कर गाया , आखिर वे क्या गा रहे थे ?
क्या वे जपजी को गा रहे थे , क्या वे प्रभु का भजन गा रहे थे या कुछ और गा रहे थे ?
भक्त जिस स्थान पर नाचता - गाता है , उसके नाचानें - गानें के पीछे दो मकशद होते हैं लेकीन वह स्वयं इस बात को नहीं जानता होता ।
भक्त अपनें नाच - गान के समय स्वयं को परम निर्विकार ऊर्जा से भरता है और जहां
उस समय होता है उस स्थान को भी परम ऊर्जा से चार्ज करता है ।
परम सिद्ध योगी जैसे आदि गुरु नानकजी साहीब जहां - जहां गए हैं उन - उन स्थानों को आप देखें ,
वे स्थान कोई आम स्थानं नहीं हैं , वे तीर्थ हैं जहां उनसे पहले अनेक सत गुरुओं नें नाचा है , गाया है ।
तीर्थ वह स्थान है , जहां जब कोई भक्त पहुंचता है और वह पूर्ण रूप से परा भक्ति में होता है
तब उसे उस स्थान पर आज भी परम गुरु मिलते हैं जैसे नानकजी साहिब , कबीरजी साहिब आदि और उस भक्त की साधना में उसकी मदद करते हैं ।
क्या आप आज भी आदि गुरु नानकजी साहिब से मिलना चाहते हैं ?
क्या आप आज भी कबीरजी साहिब से मिलना चाहते हैं ?
तो जाइए आप काशी , काबा , करबला , अमृतसर तथा अन्य ऐसे स्थानों पर जहां आदि गुरु एवं कबीर जी साहिब कुछ दिन रुके रहे हों ।
गुरुको खोजना नहीं पड़ता .....
गुरु स्वयं सत भक्त को खोजता रहता है
सत गुरु को खोजा नहीं जा सकता , स्वयं को ऐसा बनाना पड़ता है की सत गुरु स्वतः आकर्षित हो सके ।

==== एक ओंकार सत नाम ======

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