Tuesday, December 9, 2014
Saturday, December 6, 2014
सुख - दुःख
गीता के मोती - 37
गीता : 18.38 + 5.22
गीता - 18.38 >
" इन्द्रिय सुख भोग काल में अमृत सा भाषता है पर उसका परिणाम बिषके सामान होता है ।"
गीता : 5.22 >
" इन्द्रिय सुख दुःख के हेतु हैं । बुद्ध पुरुष इन्द्रिय सुख में नहीं रमता ।"
* गीताके माध्यम से कर्म - योग और ज्ञान - योगके पहले चरणको प्रभु किस ढंग से प्रस्तुत कर रहे हैं , इस बात पर किया जानें वाला मनन , ज्ञान योग में उतार सकता है और इन सूत्रों की छाया में जो कर्म होंगे , वे कर्म योग की बुनियाद रख सकते हैं ।अब देखते हैं ---
** क्या है , इन्द्रिय सुख ?
पाँच ज्ञान इन्द्रियोंके अपनें - अपनें बिषय हैं ।अपनें - अपनें बिषयों में रमना , इन इन्द्रियोंका स्वभाव है । इन्द्रिय - विषय संयोग से जो उर्जा उठती है , वह उर्जा दो प्रकार में से कोई एक हो सकती है । गुणोंके प्रभावसे उपजी उर्जा भोग में पहुंचाती है जिसके सम्बन्ध में ऊपर के दो सूत्र हैं । और बिना गुणके प्रभाव में वही उर्जा न सुख की अनुभूति से गुजारता है न दुःख की अनुभूति से अपितु समभाव में रखती है । समभाव में जो होता है वह सत्य ही होता है ।
~~~ ॐ ~~~
Monday, November 17, 2014
गीता के मोती - 36
Tuesday, October 28, 2014
गीता के मोती - 35
Friday, October 10, 2014
गीता के मोती - 34
गीता के मोती - 33
Sunday, September 14, 2014
गीता के मोती - 32
Thursday, August 28, 2014
गीता के मोती - 31 ( तीर्थ क्या हैं ? )
Sunday, August 10, 2014
गीता के मोती - 30
Sunday, July 27, 2014
गीता के मोती - 29 ( भाग - 3 )
Friday, July 25, 2014
गीता के मोती - 28
Thursday, July 24, 2014
गीता के मोती - 27
Tuesday, July 22, 2014
गीता के मोती - 26
Tuesday, July 15, 2014
गीता के मोती - 25
Friday, July 11, 2014
गीता के मोती - 24
Tuesday, July 8, 2014
गीता एक माध्यम है
Saturday, June 28, 2014
गीता मोती - 23
Wednesday, June 18, 2014
गीता मोती - 22
Monday, June 9, 2014
गीता मोती - 21
Sunday, June 8, 2014
गीता मोती - 20
● गीता अमृत ( आसक्ति - 3 )●
** पिछले अंक में गीताके माध्यमसे बिषय - इन्द्रिय संयोगके फलस्वरुप मनमें उस बिषय के प्रति मनन उत्पन्न होता है , इस बात को देखा गया था , अब इसके आगे की स्थितिको
देखते हैं ।
** मनुष्य में एक उर्जा है जो जीवात्माके विकिरण उर्जाके रूपमें संपूर्ण लिंग शरीरके प्रत्येक कोशिका में बहती रहती है । आत्माके विकिरणका केंद्र है ,
हृदय । हृदयसे जब यह उर्जा शरीरमें प्रवाहित होती है तब इसका जगह- जगह पर रूपांतरण होनें लगता है और यह निर्विकार उर्जा धीरे - धीरे बाहर - बाहरसे सविकार हो जाती है और इसके रूपांतरणके साथ मनुष्य योगी से भोगी में बदलता चला जाता है
** ध्यान से समझने की बात है कि जीवों में मात्र मनुष्य मूलतः योगी है लेकिन मायाके आयाम और काल के प्रभाव में यह योगी से भोगी में अर्थात मनुष्य से पशुवत ब्याहार में बदलता रहता है ।
** हृदयसे उठी जीवात्माकी विकिरण उर्जा जब इन्द्रियों से गुजरती है तब यह गुण समीकरणके प्रभाव में निर्विकारसे सविकार हो जाती है और मनुष्य अज्ञानका गुलाम होकर पशु जैसा जीवन जीनें
लगता है ।
** शेष अगले अंक में **
~~ हरे कृष्ण ~~
Thursday, May 29, 2014
गीता अमृत ( आसक्ति भाग - 2 )
** आसक्ति ( Attachment ) भाग - 2
> गीता - 2.62-2.63 <
" प्रभु श्री कृष्ण अर्जुन को कर्म योग एवं ज्ञान योग के मूल सिद्धांत को स्पष्ट करते हुए कह रहे हैं , हे अर्जुन ! सुनो , इन्द्रियों का स्वभाव है अपनें - अपनें बिषयों की तलाश करते रहना । जब पांच ज्ञान इन्द्रियों में किसी एक को उसका बिषय मिल जाता है तब उस बिषय पर उस ब्यक्ति का मन मनन प्रारम्भ कर देता
है । सभीं इन्द्रियों का आतंरिक छोर मन से जुड़ा है और बाहरी छोर प्रकृति में स्थित बिषय की तलाश करता है ।
* मन में जब मनन प्रारम्भ होता है तब मन को बुद्धि एवं अहंकार का सहयोग भी मिलता रहता है । मनन से उस बिषय को भोगनें की कामना उठनें लगती
है ।कामना राजस गुणका एक अहम तत्त्व है ।कामना टूटने पर वही कामना की उर्जा क्रोध में बदल जाती है और क्रोधमें बुद्धि अज्ञान से भर जाती है तथा क्रोध पाप का गर्भ है ।
* क्रोध अहंकारकी ऊर्जा के सहयोग से मनुष्यको पशु से भी नीचे की स्थिति में ला देता है और उस मनुष्यका नाश दिखनें लगता है।"
~~ हरे कृष्ण ~~
Tuesday, May 20, 2014
गीता अमृत (आसक्ति भाग -1 )
** गीता गुण तत्वों की पकड़ और भोग की गाठोंके प्रति होश उठाना चाहता है । गुण तत्वों की पकड़ को समझना कर्म -योग और ज्ञान - योग दोनों का प्रथम सोपान है । कर्म योग और ज्ञान योगका प्रारम्भिक केंद्र बुद्धि है और भक्तिका प्रारम्भिक केंद्र है ,हृदय । हृदय की दुर्बलताएं ही भोग की गाठें हैं जिनको भोग तत्त्व या गुण तत्त्व भी कहते हैं ।
* भोग की गाठों का सीधा सम्बन्ध है , मनकी बृत्तियों से । 10 इन्द्रियाँ , 05 तन्मात्र ( बिषय ) , 05 प्रकार के कर्म , स्थूल शरीर और अहंकार ये 22 तत्त्व मन की बृत्तियाँ हैं ।
* 10 इन्द्रियों ,मन ,05 बिषय और तीन प्रकार के अहंकारों , उनकी गति और स्वभाव को समझना कर्म -योग एवं ज्ञान - योग के प्रारम्भिक चरण हैं जो अभ्यास -योग से मिलता है ।अभ्यास - योग में शरीर ,खान -पान , नीद , जागना , उठना ,बैठना , संगति , भाषा एवं अन्य तत्वोंके प्रति होशमय रहते हुए उनको नियंत्रण में रखना होता है ।
** अभ्यास -योग का सीधा सम्बन्ध है , पांच ज्ञान इन्द्रियों और उनके बिषयों के सम्बन्ध से । इन्द्रिय -बिषय संयोग यदि गुण तत्वों के प्रभाव में होता है तब उस बिषय के प्रति मन में आसक्ति उठती है और आसक्ति मनकी वह उर्जा है जो योग से सीधे भोग में वापिस ला देती हैं ।
● शेष अगले अंक में ●
~~ हरे कृष्ण ~~
Tuesday, May 13, 2014
गीता अमृत ( दो शब्द )
Sunday, May 11, 2014
आसक्ति से समाधि तक ( भाग - 1 )
Sunday, May 4, 2014
गीता मोती - 19
Tuesday, April 29, 2014
एक फ़क़ीर की सोच
Thursday, April 24, 2014
भागवतकी कुछ मूल बातें
Wednesday, April 23, 2014
भागवतके कुछ मोती - 1
Monday, April 21, 2014
गुरु प्रसाद
Tuesday, April 8, 2014
गीता दृष्टि
●गीताके मोती - 19●
* गीता एक पाठशाला है जहाँ उनको परखनें और समझनें का मौका मिलता है जिनको गुण तत्त्व या भोग तत्त्व कहते हैं जैसे आसक्ति ,कामना ,काम ,क्रोध ,लोभ ,मोह ,भय , आलस्य और अहंकार ।
* गीता कहता है , गुण तत्वों से परिचय अभ्यास योग से होता है और यह परिचय सभीं तत्वों के स्वभावों से अवगत कराता है ।
* गुण तत्वों की परख बुद्धि योग की अहम कड़ी है जो अनिश्चयात्मिका बुद्धि को निश्चयात्मिका बुद्धि में बदल कर समभाव में बसा देती है । समभाव में स्थित मन -बुद्धि एक ऐसा माध्यम बन जाते हैं जहाँ जो भी होता है वह परम सत्य ही होता है ।
* गीता की छाया में बैठना ध्यान है और ध्यानसे मनुष्य ज्ञान -विज्ञान की उर्जा से क्षेत्र एवं क्षेत्रज्ञ के रहस्य को देखता है और यह रहस्य ही सांख्य योग का केंद्र है ।
* गीता कर्म योग की गणित देता है जहाँ कर्म कर्म तत्वों की पकड़ के बिना होता है और ऐसे कर्म का केंद्र निराकार प्रभु होता है । कर्म तत्वों की पकड़ के बिना होनें वाला कर्म ध्यान है जहाँ इन्द्रियाँ अपनें -अपनें बिषयों के सम्मोहन से दूर अन्तः मुखी हो जाती है ,मन प्रभु पर केन्द्रित होता है और बुद्धि तर्क -वितर्क से परे निर्मल आइना जैसी हो उठती है जिस पर बननें वाली तस्बीर निराकार ब्रह्म की होती है जिसे इन्द्रियाँ ब्यक्त नहीं कर सकती पर उसे नक्कार भी नहीं सकती ।
* क्रोध को प्यार में ...
* अहंकार को श्रद्धा में ...
*आसक्ति -कामना को भक्ति में ...
बदलनें की उर्जा गीता में हैं ।।
~~~ हरे कृष्ण ~~~
Friday, February 21, 2014
गीता मोती - 18 , भागवत के 50 मूल सूत्र
Sunday, February 16, 2014
गीता मोती - 17 मन ध्यान
Wednesday, February 5, 2014
गीता मोती -16
ऐसा ही होता है
* जनक राजा निमि को योगीश्वर तत्त्व ज्ञान में ऐसी बात बताते हैं :---
#वायु पृथ्वी से उसका गुण गंध छीन लेती है और पृथ्वी जल में रूपांतरित हो जाती है ।
# वायु जलका गुण रस को चूस लेती है और जल अग्नि में रूपांतरित हो जाता है ।
# कालका रूप अंधकार अग्निके गुण रूप को छीन लेता है और अग्नि वायु में रुपांतरित हो जाती
है ।
# आकाश वायु से उसके गुण स्पर्श को छीन लेता है और वायु आकाश में समा जाती है ।
# काल आकाश से उसका गुण शब्द छीन लेता है और आकाश तामस अहंकार में रूपांतरित हो जाता
है ।
# # पृथ्वी ,जल ,वायु , अग्नि और आकाश ये पांच महाभूत अपनें मूल तामस अहंकार में रूपांतरित हो जानें के बाद :---
1- इन्द्रियाँ और बुद्धि अपनें मूल राजस अहंकार में लीन हो जाती हैं ।
2- मन अपनें मूल सात्त्विक अहंकार में समा जाता
है , और ----
# इस तरह पांच महाभूत , पांच बिषय ,मन और बुद्धि तीन अहंकारों में लुप्त हो जाते हैं , फिर ----
क - तीन अहंकार कालके प्रभाव में महतत्त्व में लुप्त हो जाते हैं और :---
ख - महतत्त्व ब्रह्म में लीन हो जाता है , तथा ----
ग- सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड ब्रह्ममय होता है ।
++ सृष्टिके अंतका यह काल चक्र आपनें देखा । ब्रह्माण्डमें कोई दृश्य और द्रष्टा नहीं रहता और जो रहता है उसे ब्रह्म कहते हैं ।
::: ॐ :::
Tuesday, February 4, 2014
गीता मोती - 15 (गीता अध्याय - 4 का सार )
Sunday, January 26, 2014
कर्म - ज्ञान मार्ग
गीता मोती - 16
Saturday, January 11, 2014
गीता मोती - 15
● रोज देख रहे हो लेकिन ... ? भाग - 1
<> मंदिर त्रिवेणी हैं , जहाँ तीन प्रकारकी उर्जायें बह रही हैं , एक मंदिर के गर्भ गृहके मध्य स्थित मूर्ति से विकिरण द्वारा फ़ैल रही परम सनातन प्राणमय उर्जा है जो मंदिर के द्वार पर टंग रहे घंटेके माध्यम से सभीं दिशाओं में फ़ैल रही है । दूसरी उर्जा उन ब्यक्तियों की होती है जो मंदिर में प्रवेश करते हैं । तीसरी उर्जा उनकी होती है जो मंदिर में प्रवेश कर्ताओं के आश्रित हैं और मंदिर के बाहर खड़े रहते हैं । जो मंदिर के बाहर खड़े हैं ,जिनको भिखारी कहा जता है , उनको मंदिरके अन्दर स्थित मूर्ति से कुछ लेना -देना नहीं ,उनको मंदिर में प्रवेश करनें वालों से भी कोई ख़ास प्रयोजन नहीं होता ,उनकी पूरी उर्जा उस बस्तु पर टिकी होती है जो मंदिर में प्रवेश कर्ताओं के हांथों में दान के लिए होती हैं । मंदिर दो भिखारियों और एक सनातन उर्जाका त्रिवेणी है ।
* मंदिर के अन्दर और बाहर दोनों तरह भिखारी हैं ,मंदिरके अन्दर प्रवेश कर्ता पत्थर की मूर्ति से वह मांग रहा है जिसे वह अभीं प्राप्त करनें की चाह में है । मंदिरके बाहर जो खड़े हैं ,जिनके हांथोंमें भिक्षा पात्र लटक रहे हैं ,वे जो मंदिर से बाहर निकल रहे हैं उनसे वह मांग रहे हैं जो इनको उनके हांथों में दिख रहा है , हैं दोनों भिखारी ।
* दो भिखारियों और एक ओंकार की त्रिवेणी हैं हमारे मन से निर्मित मंदिर ।
~~~ॐ ~~~
Wednesday, January 8, 2014
गीता मोती - 14
● कामना , क्रोध और दुःख ●
गीतामें प्रभु कृष्ण कहते हैं :---
* इन्द्रिय - बिषय संयोग से मन उस बिषयके सम्बन्ध में मनन करनें लगता है और मनन का स्वरुप गुण आधारित होता है अर्थात मनन के समय जिस गुण के प्रभाव में मन होता है , मनन जा केंद्र उसी गुण तत्त्व पर होता है । बिषय एक होता है और उस बिषय पर मन तीन प्रकार से मनन कर सकता है ।
* मनन से आसक्ति उठती है : आसक्ति अर्थात उस बिषय के भोग की उर्जा ।
* आसक्ति से संकल्प - कामना का उदय होता है । * कामना टूटने का भय क्रोध पैदा करता है ।
* क्रोध काम - कामना का रूपांतरण है * क्रोध मनुष्य के पतन का करण है ।
* जितनी गहरी कामना होगी , उसके खंडित होनें पर उतना गहरा दुःख होगा ।
* कामना की पूर्ति होना अहंकार को और सघन बनाता है ।
* कामना रहित सन्यासी होता है ।
* सन्यास , वैराग्य और भक्ति एक साथ रहते हैं ।
* परा भक्त प्रभु तुल्य होता है ।
~~ ॐ ~~