Wednesday, December 29, 2010
गीता अध्याय - 02
भाग - 16
गीता श्लोक - 2.47 के सन्दर्भ में गीता श्लोक - 3.5
न हि कश्चित् क्षणं अपि जातु तिष्ठति अकर्म - कृत ।
कार्यते हि अवश : कर्म सर्व : प्रकृति - जै : गुनै : ॥
गीता सूत्र - 2.47 में प्रभु कहते हैं :
कर्म करना सब का अधिकार है लेकीन -----
कर्म न करना और ....
कर्म - फल की चाह रखना अधिकार नहीं ॥
कर्म करना क्यों अधिकार है ?
इस सम्बन्ध में गीता सूत्र - 3.5 कह रहा है :
कर्म रहित होना मनुष्य के बश में नहीं क्योंकि ----
कर्म करता मनुष्य तो है नहीं , कर्म होते हैं गुणों के प्रभाव के कारण ॥
To remain without work is not the will of a being ,
one has to work because doers are the
three natural modes , infact , beings are just the witnessers .
गीता न इधर जानें देता है न उधर ,
कहता है ......
जब आ ही गए हो तो सीधे चलो ॥
सीधे चलनें का भाव है -----
इन्द्रिय - मन - बुद्धि का गुलाम बन कर न चलो ......
अहंकार के नशे में न चलो ..............
- काम - कामना , मोह - लोभ की ऊर्जा से न चलो .....
जब चल ही रहे हो तो .....
अल मस्ती में चलो जैसे सम्राट चलते हैं , न की भीखारी ॥
सम्राट के कदम दस इंच के होते हैं और भीखारी दौड़ता हुआ चलता है क्यों की ......
उनको कम समय में अधिक से अधिक घरों को कबर करना होता है ॥
==== ॐ =====
Monday, December 27, 2010
गीता अध्याय - 02
भाग - 15
कर्मणि एव अधिकार :
मा फलेषु कदाचन ।
मा कर्म फल हेतु
भू : मा ते संग : अस्तु अकर्मणि ॥
गीता - 2.47
कर्म करना अधिकार है किन्तु फल की चाह का करना अधिकार नहीं है ।
हे अर्जुन !
तुम अपनें कर्मों के फल का कारण न समझो और न ही कर्म न करनें की आसक्ति से बधो ।
Every one has gifted action - energy from the nature [ prakriti ] ।
Every one is bound to work and the thaught , not to work is against the nature .
Work done without attachment leads to Karm - Yoga .
गीता के इस श्लोक को समझनें के लिए आप को देखना है
निम्न तेरह श्लोकों को , जो इस प्रकार हैं -----
3.5 , 18.11 ,18.48 , 3.27 , 3.28 , 3.33 ,
18.59 , 18.60 , 14.10 , 18.40 , 7.12 , 7.14 , 7.13
यहाँ इन श्लोकों को अभी तो नहीं दिया जा रहा लेकीन आगे चल कर आप इनको भी देख सकेंगे ।
अब इस श्लोक को देखते हैं :
मनुष्य हो या कोई और जीव - धारी , सब को एक सामान प्रकृति की
ओर से कर्म करनें का कारण मिला हुआ है ,
जिसको कोई नक्कार नहीं सकता और वह कारण है ------
भूख और काम - वासना ॥
भूख यदि न होती तो आज आकाश से करती बातें वाली बहु मंजिल्ली इमारतें न होती ,
मनुष्य तीन चौथाई समस्या समाप्त हो गयी होती ,
इसके साथ - साथ यदि काम - वासना भी न होती हो उस समय का मानंव कैसा होता ?
भूख , काम - वासना एवं सुरक्षा - ये तीन तत्त्व ऐसे हैं जो मनुष्य एवं अन्य जीवों को गुलाम बना कर
रखते हैं ।
गीता कहता है :
मनुष्य मात्र एक ऐसा जीव है जो .........
सब कुछ समझता है ----
स्वयं से लेकर प्रभु तक को समझ सकनें की ऊर्जा रखता है .......
काम - वासना से वासना को अलग करके
उस काम - ऊर्जा का प्रयोग प्रभु तक पहुंचनें में कर सकता है ....
अपने बंधनों को समझ कर निर्वाण की यात्रा कर के परम आनंदित हो सकता है .....
आगे अगले अंको में यदि आप मेरे साथ रहे तो
गीता के माध्यम से आप को यह पता चल जाएगा की
कर्म करना क्यों अधिकार है ....
कर्म - त्याग करना कैसे कठिन है ?.....
और कर्म - ऊर्जा को रूपांतरित करके कोई -----
भोगी से योगी कैसे बन सकता है ?
====== ॐ ======
कर्मणि एव अधिकार :
मा फलेषु कदाचन ।
मा कर्म फल हेतु
भू : मा ते संग : अस्तु अकर्मणि ॥
गीता - 2.47
कर्म करना अधिकार है किन्तु फल की चाह का करना अधिकार नहीं है ।
हे अर्जुन !
तुम अपनें कर्मों के फल का कारण न समझो और न ही कर्म न करनें की आसक्ति से बधो ।
Every one has gifted action - energy from the nature [ prakriti ] ।
Every one is bound to work and the thaught , not to work is against the nature .
Work done without attachment leads to Karm - Yoga .
गीता के इस श्लोक को समझनें के लिए आप को देखना है
निम्न तेरह श्लोकों को , जो इस प्रकार हैं -----
3.5 , 18.11 ,18.48 , 3.27 , 3.28 , 3.33 ,
18.59 , 18.60 , 14.10 , 18.40 , 7.12 , 7.14 , 7.13
यहाँ इन श्लोकों को अभी तो नहीं दिया जा रहा लेकीन आगे चल कर आप इनको भी देख सकेंगे ।
अब इस श्लोक को देखते हैं :
मनुष्य हो या कोई और जीव - धारी , सब को एक सामान प्रकृति की
ओर से कर्म करनें का कारण मिला हुआ है ,
जिसको कोई नक्कार नहीं सकता और वह कारण है ------
भूख और काम - वासना ॥
भूख यदि न होती तो आज आकाश से करती बातें वाली बहु मंजिल्ली इमारतें न होती ,
मनुष्य तीन चौथाई समस्या समाप्त हो गयी होती ,
इसके साथ - साथ यदि काम - वासना भी न होती हो उस समय का मानंव कैसा होता ?
भूख , काम - वासना एवं सुरक्षा - ये तीन तत्त्व ऐसे हैं जो मनुष्य एवं अन्य जीवों को गुलाम बना कर
रखते हैं ।
गीता कहता है :
मनुष्य मात्र एक ऐसा जीव है जो .........
सब कुछ समझता है ----
स्वयं से लेकर प्रभु तक को समझ सकनें की ऊर्जा रखता है .......
काम - वासना से वासना को अलग करके
उस काम - ऊर्जा का प्रयोग प्रभु तक पहुंचनें में कर सकता है ....
अपने बंधनों को समझ कर निर्वाण की यात्रा कर के परम आनंदित हो सकता है .....
आगे अगले अंको में यदि आप मेरे साथ रहे तो
गीता के माध्यम से आप को यह पता चल जाएगा की
कर्म करना क्यों अधिकार है ....
कर्म - त्याग करना कैसे कठिन है ?.....
और कर्म - ऊर्जा को रूपांतरित करके कोई -----
भोगी से योगी कैसे बन सकता है ?
====== ॐ ======
Friday, December 24, 2010
गीता अध्याय - 02
भाग - 14
पीछले अंक में गीता सूत्र - 2.41 को स्पष्ट किया गया
और यहाँ आप दो और सूत्रों को देखें
जो
पिछले सूत्र के समर्थन में हैं ॥
गीता सूत्र - 2.44
यहाँ प्रभु कहते हैं ----
बुद्धि में जब भोग - भाव भरता है तब यह अस्थिर हो जाती है ,
अपनी दृढ़ता खो देती है और
इसकें संदेह की लहर भी उठनें लगती है ॥
गीता - सूत्र - 7.10
यहाँ प्रभु कह रहे हैं -----
बुद्धिमानों में , बुद्धि , मैं हूँ ॥
गीता में बुद्धि के दो रूपों को दिखाया गया है ; एक रूप है -
संदेहयुक्त बुद्धि का
जिसको भोग - बुद्धि कह सकते हैं जो रह -रह कर अपना रंग बदलती
रहती है
और दूसरी बुद्धि वह है जो स्थिर होती है ,
जिसमे मात्र प्रभु की ऊर्जा होती है ,
जो ब्यक्ति को केवल प्रभु पर केन्द्रित रखती है और वह
ब्यक्ति स्वयं को परमा नन्द में समझ कर खुश रहता है ॥
बुद्धि तो एक है लेकीन ----
जब यह गुणों के प्रभाव में होती है तब इसका झुकाव होता है
भोग की ओर
और ...
निर्विकार बुद्धि एक प्रभु पर केन्द्रित रहती है ॥
आज इतना ही
====ॐ====
Wednesday, December 22, 2010
गीता अध्याय - 02
भाग - 13
गीता अध्याय दो के प्रथम खंड में ध्यानोपयोगी - सूत्रों में अब हम देखनें जा रहे हैं ------
गीता सूत्र - 2.41
ब्यवसाय -आत्मिका बुद्धि :
एका इह कुरुनन्दन ।
बहुशाखा : हि अनंता :
च बुद्ध्य : अब्यवसायिनाम
प्रभु यहाँ बुद्धि के दो रूपों को बता रहे हैं , कहते हैं -------
एक बुद्धि होती है वह ......
जो मात्र मेरी ओर चलाती है ,
और .....
दूसरी बुद्धि है , वह जो चलती नहीं फुदुकती है ,
कहीं किसी भोग बिषय पर तो कभी किसी और पर ॥
गीता सूत्र - 2.42 से 2.44 तक को यदि आप बार - बार पढ़ें तो
जो मकरंद आप को मिलेगा वह कुछ इस प्रकार का होगा ----
भोग - भगवन को एक साथ एक समय में एक बुद्धि में नहीं रखा जा सकता ॥
ध्यान , योग , तप एवं अन्य साधाना श्रोतों का मात्र एक उद्देश्य होता है , और वह होता है ......
अस्थिर बुद्धि को स्थिर बुद्धि में बदलना और यह तब संभव होता है ,
जब .....
बिषयों के प्रति होश हो ------
इन्द्रियों से मैत्री हो .........
मन को अकेले न छोडनें का अच्छा अभ्यास हो ........
अगले अंक में हम इस सूत्र के सम्बन्ध में निम्न सूत्रों को भी देखेंगे :
7.10
2.44
आज इतना ही
===== ॐ ======
Monday, December 20, 2010
गीता अध्याय - 02
भाग - 12
हमारी अध्याय - दो की यह यात्रा अब भाग - 12 पर आ पहुंची
है , अगला श्लोक है - 2.38 लेकीन इस
श्लोक में उतरनें से पहले हम आप सब को याद दिलाना चाहते हैं की -------
इस अध्याय की यात्रा को हम चार भागों में देखनें जा रहे हैं ,
जिनमे पहला भाग है - ध्यानोपयोगी श्लोकों का ।
यहाँ हम इस अध्याय के 21 श्लोकों को और
अन्य अध्यायों के 23 श्लोकों को देखनें जा रहे हैं ।
चलिए अब चलते हैं गीता श्लोक - 2.38 में ------
सुख - दुःख लाभ - हानि , विजय - पराजय का
विचार किये बिना , तुम इस युद्ध में भाग लो क्योंकि
इस भाव से जो युद्ध करेगा उसे किसी भी पाप का भागी नहीं बनना पड़ेगा ।
treating alike - pleasure - pain , gain - loss , victory - defeat , get ready for this battle।
a man with such feeling एंड
full of pure enery can not commit sin .
अब वक़्त है इस सूत्र पर सोचनें का :
एक ब्यक्ति जो गले तक मोह में डूबा हुआ है ......
एक ब्यक्ति जो मोह में अपनों के समाप्त हो रहे जीवन की सोच
में धीरे - धीरे नीचे सरकता जा रहा है ....
एक ब्यक्ति जो इस युद्ध का एक प्रमुख नायक जाना जाता है ......
एक ब्यक्ति जिसको स्वयं प्रभु समझा रहे हों ......
क्या वह युद्ध के लिए तैयार हो सकेगा ?
क्या कारण है की प्रभु अर्जुन को इतना जोर दे रहे हैं युद्ध के लिए ,
कुछ तो कारण होगा ही ?
प्रभु श्री कृष्ण गीता में एक सांख्य - योगी के रूप में है
और सांख्य - योगी बुद्धि - योगी होता है जो हर वक़्त को अहम् समझता है ।
प्रभु त्रिकाल दर्शी हैं , उनको यह स्पष्ट है की इस युद्ध को टालना अब संभव नहीं तो क्यों न ----
इस योद्ध को ध्यान - बिधि की
तरह प्रयोग में लाया जाए और .....
विशेष तौर पर अर्जुन को एक समभाव - योगी के रूप में रूपांतरित
करनें में इसका प्रयोग किया जाय ।
जैसे वैज्ञानिक प्रयोगशाला में प्रयोग करते हैं ठीक उसी तरह प्रभु
यहाँ इस युद्ध को एक प्रयोगशाला की भाँती
प्रयोग करना चाहते हैं ॥
हमारी अध्याय - दो की यह यात्रा अब भाग - 12 पर आ पहुंची
है , अगला श्लोक है - 2.38 लेकीन इस
श्लोक में उतरनें से पहले हम आप सब को याद दिलाना चाहते हैं की -------
इस अध्याय की यात्रा को हम चार भागों में देखनें जा रहे हैं ,
जिनमे पहला भाग है - ध्यानोपयोगी श्लोकों का ।
यहाँ हम इस अध्याय के 21 श्लोकों को और
अन्य अध्यायों के 23 श्लोकों को देखनें जा रहे हैं ।
चलिए अब चलते हैं गीता श्लोक - 2.38 में ------
सुख - दुःख लाभ - हानि , विजय - पराजय का
विचार किये बिना , तुम इस युद्ध में भाग लो क्योंकि
इस भाव से जो युद्ध करेगा उसे किसी भी पाप का भागी नहीं बनना पड़ेगा ।
treating alike - pleasure - pain , gain - loss , victory - defeat , get ready for this battle।
a man with such feeling एंड
full of pure enery can not commit sin .
अब वक़्त है इस सूत्र पर सोचनें का :
एक ब्यक्ति जो गले तक मोह में डूबा हुआ है ......
एक ब्यक्ति जो मोह में अपनों के समाप्त हो रहे जीवन की सोच
में धीरे - धीरे नीचे सरकता जा रहा है ....
एक ब्यक्ति जो इस युद्ध का एक प्रमुख नायक जाना जाता है ......
एक ब्यक्ति जिसको स्वयं प्रभु समझा रहे हों ......
क्या वह युद्ध के लिए तैयार हो सकेगा ?
क्या कारण है की प्रभु अर्जुन को इतना जोर दे रहे हैं युद्ध के लिए ,
कुछ तो कारण होगा ही ?
प्रभु श्री कृष्ण गीता में एक सांख्य - योगी के रूप में है
और सांख्य - योगी बुद्धि - योगी होता है जो हर वक़्त को अहम् समझता है ।
प्रभु त्रिकाल दर्शी हैं , उनको यह स्पष्ट है की इस युद्ध को टालना अब संभव नहीं तो क्यों न ----
इस योद्ध को ध्यान - बिधि की
तरह प्रयोग में लाया जाए और .....
विशेष तौर पर अर्जुन को एक समभाव - योगी के रूप में रूपांतरित
करनें में इसका प्रयोग किया जाय ।
जैसे वैज्ञानिक प्रयोगशाला में प्रयोग करते हैं ठीक उसी तरह प्रभु
यहाँ इस युद्ध को एक प्रयोगशाला की भाँती
प्रयोग करना चाहते हैं ॥
प्रभु आप को सद्बुद्धि दे ॥
==== ॐ =====
Sunday, December 19, 2010
गीता अध्याय - 02
भाग - ११
पिछले अंक में हमनें गीता श्लोक - 2.14 के सम्बन्ध में कुछ बातें देखी थी ,
अब इस सूत्र के सम्बन्ध में
गीता के दो सूत्रों को और देखते हैं जो श्लोक - 2.14 के परिपूरक जैसे दीखते हैं ।
ये हि संस्पर्शजा भोगा दुःख योनय एव ते ।
आदि - अन्तवन्त : कौन्तेय न तेषु रमते बुध : ॥ श्लोक - ५.२२
बुद्ध पुरुष इन्द्रिय भोगों में नहीं रमते जो क्षणिक आदि अंत वाले होते हैं ,
उनके ठहरनें का स्थान तो मात्र परम - आनंद ही है ।
Pleasure and pain are the integral elements of passion
and lust as sensed by the senses .
Under the influence of three gunas , whatever we get , is
pleasure coated pain which is also called as bhoga .
Buddha - an enlightened one does not have interest in such pleasures
because his abode is the supreme joy - param - ananda .
सूत्र - 18.38
यह सूत्र कहता है :
इन्द्रिय और बिषय के सहयोग से जो सुख मिलता है
वह प्रारम्भ में तो अमृत सा लगता है लेकीन वह
अमृत - अमृत कोटेड बिष होता है ॥
pleasure arises from the contact of senses and
objects appears like nector but this nector
contains in it - a poison .
गीता के तीन सूत्रों के माध्यम से आपनें देखा की ------
हम - आप जिसको सुख कहते हैं , वह सुख बुद्ध - पुरुष के लिए दुःख दिखता है ॥
हम जिसमें अमृत देखते हैं , बुद्ध -पुरुष उसमें बिष देखते हैं ॥
अब आप सोचो की .....
दो ब्यक्ति एक जगह एक साथ खड़े हैं .....
उनमें से एक का मुख पूरब की ओर है ....
और दुसरे का रुख पश्चिम की ओर है ....
फिर दोनों का मिलन क्या मिलन होगा ?
योगी से मिलनें के लिए पहली कुछ तैयारी तो करनी ही पड़ती है , यदि ----
तैयारी ठीक नहीं हुयी तो हम योगी को पहचानेंगे भी कैसे ?
चलिए गीता माध्यम से करते हैं गीता - योगी से मिलनें की तैयारी ॥
=== ॐ ====
पिछले अंक में हमनें गीता श्लोक - 2.14 के सम्बन्ध में कुछ बातें देखी थी ,
अब इस सूत्र के सम्बन्ध में
गीता के दो सूत्रों को और देखते हैं जो श्लोक - 2.14 के परिपूरक जैसे दीखते हैं ।
ये हि संस्पर्शजा भोगा दुःख योनय एव ते ।
आदि - अन्तवन्त : कौन्तेय न तेषु रमते बुध : ॥ श्लोक - ५.२२
बुद्ध पुरुष इन्द्रिय भोगों में नहीं रमते जो क्षणिक आदि अंत वाले होते हैं ,
उनके ठहरनें का स्थान तो मात्र परम - आनंद ही है ।
Pleasure and pain are the integral elements of passion
and lust as sensed by the senses .
Under the influence of three gunas , whatever we get , is
pleasure coated pain which is also called as bhoga .
Buddha - an enlightened one does not have interest in such pleasures
because his abode is the supreme joy - param - ananda .
सूत्र - 18.38
यह सूत्र कहता है :
इन्द्रिय और बिषय के सहयोग से जो सुख मिलता है
वह प्रारम्भ में तो अमृत सा लगता है लेकीन वह
अमृत - अमृत कोटेड बिष होता है ॥
pleasure arises from the contact of senses and
objects appears like nector but this nector
contains in it - a poison .
गीता के तीन सूत्रों के माध्यम से आपनें देखा की ------
हम - आप जिसको सुख कहते हैं , वह सुख बुद्ध - पुरुष के लिए दुःख दिखता है ॥
हम जिसमें अमृत देखते हैं , बुद्ध -पुरुष उसमें बिष देखते हैं ॥
अब आप सोचो की .....
दो ब्यक्ति एक जगह एक साथ खड़े हैं .....
उनमें से एक का मुख पूरब की ओर है ....
और दुसरे का रुख पश्चिम की ओर है ....
फिर दोनों का मिलन क्या मिलन होगा ?
योगी से मिलनें के लिए पहली कुछ तैयारी तो करनी ही पड़ती है , यदि ----
तैयारी ठीक नहीं हुयी तो हम योगी को पहचानेंगे भी कैसे ?
चलिए गीता माध्यम से करते हैं गीता - योगी से मिलनें की तैयारी ॥
=== ॐ ====
Thursday, December 16, 2010
गीता अध्याय - 02
भाग - 10
मात्रा स्पर्शा : तु कौन्तेय ----
शीत - उष्ण सुख - दुःख दा : ।
आगम अपायिनः अनित्या : -----
तां तितीक्षस्व भारत ॥
गीता श्लोक - 2.14
इन्द्रियों के माध्यम से जो सुख - दुःख मिलते हैं वे जाड़ा - गरमी ऋतुओं की तरह आनें - जानें वाले होते हैं ।
ऐसे क्षणिक सुख - दुःख को हे अर्जुन तुम समझनें की कोशिश करो ॥
pleasure and pain as sensed by our senses do not last foeever , they come and go ,
arjuna ! you should try to understand them and you should not take them seriously .
हम सब की समझ है क्या ?
हम सब के पास और क्या है - इन्द्रियों के अलावा , जिनसे हम समझनें का काम कर सकें ?
गीता के परम श्री कृष्ण ऐसा समझो की हिमायल की सबसे ऊंची छोटी पर खडा हो कर बोल रहे हैं
और अर्जुन तराई में कहीं किसी गहरे खाई में बैठ कर सुन रहे हैं , क्या ऎसी स्थिति में पूर्ण रूप से
सूना जाना संभव है ? जी नहीं ॥
अर्जुन अन्धकार में बैठे हैं ,
उठना नहीं चाहते ,
बाहर निकलना नहीं चाहते ,
बाहर निकल कर
पूर्ण खिले हुए चाँद को देखना नहीं चाहते
और प्रभु ----
अर्जुन में उस ऊर्जा को भरा रहे हैं जिस से अर्जुन स्वतः उठ कर बाहर निकालें और .......
पूर्णिमा के चाँद का लुत्फ़ उठायें ।
आज इतना ही .....
enjoy Krishna - Consciousness
=== ॐ =====
मात्रा स्पर्शा : तु कौन्तेय ----
शीत - उष्ण सुख - दुःख दा : ।
आगम अपायिनः अनित्या : -----
तां तितीक्षस्व भारत ॥
गीता श्लोक - 2.14
इन्द्रियों के माध्यम से जो सुख - दुःख मिलते हैं वे जाड़ा - गरमी ऋतुओं की तरह आनें - जानें वाले होते हैं ।
ऐसे क्षणिक सुख - दुःख को हे अर्जुन तुम समझनें की कोशिश करो ॥
pleasure and pain as sensed by our senses do not last foeever , they come and go ,
arjuna ! you should try to understand them and you should not take them seriously .
हम सब की समझ है क्या ?
हम सब के पास और क्या है - इन्द्रियों के अलावा , जिनसे हम समझनें का काम कर सकें ?
गीता के परम श्री कृष्ण ऐसा समझो की हिमायल की सबसे ऊंची छोटी पर खडा हो कर बोल रहे हैं
और अर्जुन तराई में कहीं किसी गहरे खाई में बैठ कर सुन रहे हैं , क्या ऎसी स्थिति में पूर्ण रूप से
सूना जाना संभव है ? जी नहीं ॥
अर्जुन अन्धकार में बैठे हैं ,
उठना नहीं चाहते ,
बाहर निकलना नहीं चाहते ,
बाहर निकल कर
पूर्ण खिले हुए चाँद को देखना नहीं चाहते
और प्रभु ----
अर्जुन में उस ऊर्जा को भरा रहे हैं जिस से अर्जुन स्वतः उठ कर बाहर निकालें और .......
पूर्णिमा के चाँद का लुत्फ़ उठायें ।
आज इतना ही .....
enjoy Krishna - Consciousness
=== ॐ =====
Wednesday, December 15, 2010
गीता अध्याय - 02
भाग - 09
हम गीता - अध्याय - 02 को चार भागों में यहाँ देख रहे हैं
जिनमें पहला भाग है ध्यानोपयोगी - सूत्रों का ।
इस भाग में हम इस अध्याय के इक्कीस श्लोकों को देख रहे हैं
और अन्य अध्यायों से भी इक्कीस श्लोकों
को देखा जाएगा ।
आज इस अंक में हम ले रहे हैं गीता श्लोक - 2.12 को
जो इस प्रकार है ------
श्लोक -2.12
न तु एव अहम् जातु नासं -
न त्वं न इमे जन - अधिया : ।
न च एव न भविष्याम : -
सर्वे वयमत : परमं ॥
यहाँ गीता कह रहा है -----
मृत्यु संसार रंग मंच का एक झीना पर्दा सा है जिसकी आड़ में आत्मा चोला बदलता है ।
यहाँ इस श्लोक में प्रभु कह रहे हैं ......
पहले ऐसा कभी नहीं हुआ की मैं , तुम और यहाँ इकट्ठे हुए ये राजा लोग न रहे हों
और भविष्य में भी ऐसा
कभी न होगा जब हम सब न होंगे ।
यदि ऎसी स्थिति हम सब की है फिर जो छोड़ कर जा रहे हैं या
जायेंगे उनके लिए क्या शोक करना ।
यहाँ आत्मा की उस स्थिति को दिखाया गया है जो आवागमन चक्र से जुड़ी हुयी है
लेकीन गीता - योगी
की आत्मा चोला न बदल कर अपनें मूल श्रोत परम में मिल जाती है
और वह योगी आवागमन से मुक्त
हो जाता है लेकीन -----
ऐसे योगी शादियों बात अवतरित होते हैं ,
हम सब को राह दिखानें के लिए ॥
Gita Shloka - 2।12 says ------
Death is like a screen - a very thin one behind it
the Soul transfers Itself from one body to other
when the former one does not remain in such
a sound condition that it could carry on IT further .
Lord Krishna says ......
Never was the time when i , you and all these kings
who are here to take part in this savage
were not
nor there will be ever a time
hence after
when we all shall cease to be .
बुद्ध और महाबीर के समय एक ऐसा प्रचलित योग था
जिस के माध्यम से योगी अपनें पिछले जन्मों के
झाँक सकते थे ।
बुद्ध इस ध्यान को आलय - विज्ञान कहते थे
और .....
महाबीर जाती स्मरण ॥
बश आज इतना ही
enjoy Gita and
make Gita the
way of your life
=====ॐ ======
हम गीता - अध्याय - 02 को चार भागों में यहाँ देख रहे हैं
जिनमें पहला भाग है ध्यानोपयोगी - सूत्रों का ।
इस भाग में हम इस अध्याय के इक्कीस श्लोकों को देख रहे हैं
और अन्य अध्यायों से भी इक्कीस श्लोकों
को देखा जाएगा ।
आज इस अंक में हम ले रहे हैं गीता श्लोक - 2.12 को
जो इस प्रकार है ------
श्लोक -2.12
न तु एव अहम् जातु नासं -
न त्वं न इमे जन - अधिया : ।
न च एव न भविष्याम : -
सर्वे वयमत : परमं ॥
यहाँ गीता कह रहा है -----
मृत्यु संसार रंग मंच का एक झीना पर्दा सा है जिसकी आड़ में आत्मा चोला बदलता है ।
यहाँ इस श्लोक में प्रभु कह रहे हैं ......
पहले ऐसा कभी नहीं हुआ की मैं , तुम और यहाँ इकट्ठे हुए ये राजा लोग न रहे हों
और भविष्य में भी ऐसा
कभी न होगा जब हम सब न होंगे ।
यदि ऎसी स्थिति हम सब की है फिर जो छोड़ कर जा रहे हैं या
जायेंगे उनके लिए क्या शोक करना ।
यहाँ आत्मा की उस स्थिति को दिखाया गया है जो आवागमन चक्र से जुड़ी हुयी है
लेकीन गीता - योगी
की आत्मा चोला न बदल कर अपनें मूल श्रोत परम में मिल जाती है
और वह योगी आवागमन से मुक्त
हो जाता है लेकीन -----
ऐसे योगी शादियों बात अवतरित होते हैं ,
हम सब को राह दिखानें के लिए ॥
Gita Shloka - 2।12 says ------
Death is like a screen - a very thin one behind it
the Soul transfers Itself from one body to other
when the former one does not remain in such
a sound condition that it could carry on IT further .
Lord Krishna says ......
Never was the time when i , you and all these kings
who are here to take part in this savage
were not
nor there will be ever a time
hence after
when we all shall cease to be .
बुद्ध और महाबीर के समय एक ऐसा प्रचलित योग था
जिस के माध्यम से योगी अपनें पिछले जन्मों के
झाँक सकते थे ।
बुद्ध इस ध्यान को आलय - विज्ञान कहते थे
और .....
महाबीर जाती स्मरण ॥
बश आज इतना ही
enjoy Gita and
make Gita the
way of your life
=====ॐ ======
Monday, December 13, 2010
गीता अध्याय - 02
भाग - 08 [ Part - 08 ]
अध्याय दो को चार भागों में बिभक्त करके हम यहाँ देख रहे हैं
और अभी प्रभाग - 01 ध्यानोपयोगी श्लोकों के अंतर्गत
इस अध्याय के कुछ सूत्रों को देख रहे हैं और उनके समर्थन में कुछ
अन्य सूत्रों को भी लिया जा रहा है जो
अन्य अध्यायों से हैं ।
अब हम यहाँ प्रभाग एक का आठवां अंक देखनें जा रहे हैं जिसमें
अध्याय - 02 का श्लोक 11 को लिया जा रहा है ।
श्लोक - 2.11
अशोच्यां अन्वसोचः त्वं ---
प्रज्ञावादां च भाषते ।
गत असून अगत असून ----
न अनुशोचन्ति पंडिता : ॥
यह श्लोक कह रहा है :
संभाव वाला योगी प्रज्ञावान एवं पंडित होता है ॥
इस श्लोक से साथ हम आगे चाल कर निम्न सूत्रों को भी देखंगे :-----
4.22 , 4.23 ,5.19 , 5.20 , 2.15 , 2.48 , 2.56 , 4.10
Here Gita says .......
The man whose mind is settled in the Supreme One ,
who is in choiceless awareness
does not grieve for those who are no more and who also does not
grieve for those who are under sufferings .
Arjuna ! here you are talking like a man having resolute understanding
[ stable intelligence ] , but you do not know who is pragyawan and pandita .
it is enough today ....
jump into .....
Krishna consciousness
without applying ...
your mind ...
and intelligence .
=========ॐ ======
Friday, December 10, 2010
गीता आध्याय - 02
भाग - 07
समभाव - योगी
यहाँ इस अंक में हम देखनें जा रहे हैं गीता के कुछ मोतियों को , क्या आप तैयार हैं ?
[क] गीता सूत्र - 2.57
समभाव - योगी ज्ञानी होता है ॥
man with even mind , man whose mind is
not all the time fluctuating ,
is a man of stable intelligence .
यहाँ पहले गीता के तीन और सूत्रों को देखनें के बाद
देखते हैं गीता में
ज्ञान क्या है और
ज्ञान की प्राप्ति का माध्यम क्या है ?
[ख] गीता सूत्र - 6.5
नियोजित मन वाला स्वयं का मित्र होता है ॥
man of controlled mind is his own friend .
[ग] गीता सूत्र - 12.18 , 12.19
प्रभु अर्जुन से कहते हैं -----
हे अर्जुन समभाव वाले योगी मुझे प्रिय हैं ॥
यहाँ आप सोचिये की ......
स्वयं का मित्र होना क्या है ?
क्या हम स्वयं के शत्रु हैं ? जी हाँ -
वह जिसका तन कहीं और , मन कहीं और और बुद्धि कहीं और
लटक रही हो , वह स्वयं का मित्र कैसे हो सकता है ?
स्वयं का मित्र वह है ----
जो प्रभु से प्राप्त सूचनाओं में परम भाव रखता हो और
यह तब संभव है जब .....
तन , मन और बुद्धि की एक दिशा हो और मन में प्रभु बसा हुआ हो ॥
अब देखते हैं ज्ञान क्या है ?
गीता कहता है [ गीता सूत्र - 13.3 ]
ज्ञान है क्षेत्र - क्षेत्रज्ञ का बोध जो -----
योग सिद्धि पर [ गीता सूत्र - 4.38 ] स्वतः मिलता है , प्रभु के प्रसाद रूप में ॥
gita says -----
awareness of .....
physical body and the Supreme one is called wisdom [ gyan ]
आज इतना ही ----
प्रभु श्री कृष्ण की ऊर्जा ग्रहण करें
प्रभु सब के साथ है
बश उसे अपनें अन्तः कर्ण में बसाना है ॥
==== ॐ ======
Thursday, December 9, 2010
गीता आध्याय - 02
भाग - 06
गीता अध्याय - 02 में हम इस अध्याय को चार भागों में बिभक्त करके देख रहे हैं जिनमें
पहला भाग है ......
सामान्य सूत्र - ध्यानोपयोगी
यहाँ हम 21 श्लोकों को देख रहे हैं
और आगे इस अंक में चार श्लोकों को अब देखते हैं ॥
गीता - 2.15
यं हि न व्यथयन्त्येते पुरुषं पुरुष - रिषभ ।
सम दुःख सुखं धीरं स : अमृतत्वाय कल्पते ॥
सुख - दुःख में समभाव वाला ब्यक्ति , मुक्ति पथ पर होता है ॥
man who is beyond choice ,
who remains unchanged in dualities is fit man to get
nirvana .
गीता - 2.48
योगस्थ : कुरु कर्माणि संगः त्यक्त्वा धनञ्जय ।
सिद्धि - असिद्ध्यो : समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते ॥
सम भाव ही समत्व - योग है ॥
samatva - yog is known as yoga of intelligence , such - yogin acts without
attachmment .
गीता - 2.56 और 4.10
यहाँ गीता कहता है :
राग , भय और क्रोध से अप्रभावित ब्यक्ति -
समत्व - योगी होता है ॥
unaffected by passion , fear , anger and rage ,
is the samatva - yogi [ who remains even
under all circumstances ] ।
enough for today.........
enjoy krishna - consciousness
gita chapter II will continue ----
===ॐ ====
Tuesday, December 7, 2010
गीता अध्याय - 02
भाग - 05
गीता श्लोक - 2.12
न तु एव अहम् जातु न आसं न त्वं न इमे जनाधिपा: ।
न चैव न भविष्याम: सर्वे वयमत: परम ॥
प्रभु अर्जुन को कह रहे हैं ----
अर्जुन !
ऐसा कभी नहीं हुआ और न होगा की ....
मैं
तुम
और यहाँ उपस्थित सभी लोग ----
कभी न थे , या ....
कभी नहीं रहेंगे ॥
The Supreme Lord Krishna says : -----
never was there time when i , you and
all kings who are present here
were not ,
nor -----
there ever be a time .....
hereafter ....
when we all shall cease to be .
प्रभु क्या कह रहे हैं ?
और ....
जो कह रहे हैं वह आज भी कितनें लोगों के जेहन में उतर सकता है ?
जो आज है , उसे समझते हैं -----
सब प्रभु के एक एटम के अरबों भाग के बराबर कण जिसको ....
आत्मा या जीवात्मा कहते हैं , उस के फैलाव रूप में है ।
गीता का कण विज्ञान बहुत गहरा विज्ञान है और वह .....
आज के कण विज्ञान के साथ ही है
यदि वैज्ञानिक गीता को गंभीरता से समझनें की
कोशीश करें - तब ॥
gita - particle science is not very simple
and which is similar to modern
particle science .
we shall be looking into the particle science
of gita in the next blog .
remain happy ....
keep gita in your mind and ...
rejoice teachings of ....
Lord Krishna
==== ॐ =====
गीता अध्याय - 02
भाग - 05
भगवान् उवाच :-----
अशोच्यां अन्वशोचः त्वं प्रज्ञावादां च भाषते ।
गत असून अगत असून च न अनुशोचन्ति पंडिता ॥
समभाव - योगी प्रज्ञावान पंडित होता है ।
A man in the state of choiceless awareness is a man of stable
intelligence and , he is
known as pandita .
यहाँ आप गीता के निम्न श्लोकों को भी देखें जिनका सम्बन्ध सीधे
सम भाव - योगी से है ------
You can see for better understanding , the following
Gita - shlokas which are
directly related to sambhaav - yogin .......
5.19 , 5.20 , 4.22
4.23 , 2.15 , 2.48
2.56 , 4.10
Who is sambhaav - yogin ?
A meditator who has .......
no ataachment ----
no desire ----
no longing ----
no ego -----
no mineness ----
no anger ---
and who is .....
beyond the gravity - pull of three- fold natural modes ;
saatvik
raajas , and
taamas .
Let us try to search and put ourselves in
the space which fortunately has been
created by this shloka and we
can see some more shlokas of this chapter in the next issue .
Rejoice ......
Krishna awareness .
वह जो प्रकृति के तीन गुणों से परे ,
ध्यान के माध्यम से पहुँच जाता है , वह ....
होता है ....
समभाव - योगी
=== ॐ ======
Sunday, December 5, 2010
गीता अध्याय - 02
भाग - 04
गीता अध्याय - दो में आप अपनी जगह स्वयं तलाशे और आँखे बंद करके
दो घड़ी ही सही अपनें को प्रभु श्री कृष्ण के समक्ष
धर्म - क्षेत्र - कुरुक्षेत्र में देखते रहें ॥
यह स्थान दिल्ली और अमृतसर की परम पवित्र मार्ग पर है
जो लगभग 150 km. दिल्ली से
दूर है ।
आइये ! हम और आप चलते हैं गीता - अध्याय - दो की यात्रा पर --------
प्रारभ में बताया गया है की हमलोग इस अध्याय को
चार भागों में देखना चाहते हैं , जिनमें से
पहला भाग है ........
b-1 सामान्य ध्यान सूत्रों का ,
जिसमें कुल बीस सूत्र हैं
और आज उनमें से
कुछ सूत्रों को हम यहाँ देखनें जा हे हैं ।
इस श्रेणी में जो सूत्र हैं उनका विवरण
कुछ इस प्रकार से है .....
2.2 , 2.7 , 2.8 , 2.11 , 2.12 , 2.14 , 2.15 , 2.38 , 2.41 ,
2.47 , 2.48 , 2.49 , 2.51 , 2.52 , 2.59 , 2.60 ,
2.62 , 2.63 , 2.66 , 2.67
आइये उतरते हैं इन सूत्रों में .......
सूत्र - 2.2
प्रभु अर्जुन की बातें सुननें के बाद कहते हैं ------
मैं यह नहीं समझ पा रहा की इस असमय में
तेरे को अज्ञान से उपजा यह शोक कैसे घेर लिया है ।
यह शोक न तो तेरे को मरनें के बाद स्वर्ग ले जा सकता है और न ही समाज में
उस स्थान को दिला सकता है
जिसके लिए तुम काबिल हो ।
Lord supreme says ------
I do not understand under which circumstances you
are having this negative energy
of dullness [ natural mode ] . This dullness mode - energy
is not going to take you to heaven and
will surely cause you disgrace .
गीता सूत्र - 2.7 + 2.8
अर्जुन कहते हैं ------
हे प्रभु !
धार्मिक विचार हमारी मानसिक कमजोरी है और यह तामस गुण की
नकारात्मक ऊर्जा हमारे भ्रम का
श्रोत है , आप मुझे कृपया उचित मार्ग दिखाएँ जिस से मैं इस से बाहर
निकल कर अपनी खोई हुयी
स्मृति को धारण कर के आप द्वारा बताये मार्क पर चल सकूं ॥
ऊपर जो बीस सूत्रों की सूची दी गयी है
उनमें से इन तीन सूत्रों को छोड़ कर
अन्य सत्रह सूत्र ध्यान सूत्र हैं ,
जिनको हम आगे देखनें वाले हैं ॥
शेष अगले अंक में ॥
==== ॐ =====
गीता अध्याय - 02
भाग - 03
प्रभु कहते हैं ------
हे अर्जुन !
तुम सबके ह्रदय में आत्मा रूप में , मैं हूँ और साथ में यह भी कहते हैं -------
आत्मा सर्वत्र है .......
आत्मा अविज्ञेय है ....
आत्मा अज्ञेय है ......
आत्मा असोच्य भी है ॥
अर्जुन बिचारा , क्या करे ; पहिली जमात के बिद्यार्थी को क्या theory of relativity
को समझाया जा
सकता है ?
अर्जुन एक तरफ तो बिचारा बना हुआ है , अपनें मोह के कारण और उपरसे प्रभु
उसे और गर्म कर रहे हैं आत्मा के सम्बन्ध में बता कर ॥
गीता अध्याय - दो में हम बहत्तर श्लोकों में से कुल मात्र पचपन श्लोकों को
देखनें जा रहे हैं जो इस प्रकार से होंगे ।
अर्जुन के श्लोक :---
2.7 , 2.8 , 2.54
प्रभु के श्लोक :---
2.2 , 2.11 , 2.12 , 2.14 , 2.15 , 2.38 , 2.41 , 2.47 ,2.48 , 2.49
2.51 , 2.52 , 2.53 , 2.42 , 2.43 , 2.44 , 2.45 , 2.46 , 2.13 , 2.15
2.17 - 2.30 तक
2.55 से 2.72 तक
यहाँ हम इन पचपन श्लोकों को चार भागों में बर्गीकृत करके देखनें वाले हैं -
कुछ इस प्रकार ----
[क] सामान्य योग सम्बंधित सूत्र .....
[ख] गीता योगी और वेदों का सम्बन्ध ....
[ग] आत्मा क्या है ?
[घ] स्थिर प्रज्ञावाला योगी कौन होता है ?
आज इतना ही ....
आगे कल चर्चा होगी ....
==== ॐ =====
Saturday, December 4, 2010
गीता अध्याय - 02
भाग - 02
अध्याय सारांश
अध्याय एक में अर्जुन की दो बातें ऎसी हैं जो प्रभु को आगे उपदेश के लिए आकर्षित करती हैं ;
मोह के लक्षण और कुल- धर्म एवं जाती धर्म की बातें ।
अध्याय एक में तीन श्लोक - 1.28 , 1.29 , 1.30 अर्जुन के ऐसी श्लोक हैं जिनमें मोह के लक्षणों को
अप्रत्यक्ष रूप में बोला गया है ।
प्रभु श्री कृष्ण गीता में एक साँख्ययोगी के रूप मेंहैं और वैज्ञानिक का दूसरा नाम ही है - सांख्य - योगी ॥
अर्जुन जब प्रभु के सामनें कुल - धर्म एवं जाती - धर्म की बातें रखते हैं तब प्रभु कुछ बोलते तो नहीं हैं लेकीन
इन दो बांतों से हट कर कर्म - योग , ज्ञान - योग , संन्यास , त्याग एवं अन्य बाँतें उनकी चर्चा के बिषय बन जातेहैं ।
मोह गीता का बीज है और प्रभु मोह में डूबे अर्जुन को सबसे पहले बता रहे हैं -
आत्मा के सम्बन्ध में , यह
कहते हुए की .....
आत्मा अब्यक्त है , असोच्य है और इस को वह समझता है जो .....
मन - बुद्धि से परे की यात्रा पर हो ॥
आत्मा गुनातीत योगी का बिषय है और ....
प्रभु इसे ऐसे ब्यक्ति से बता रहे हैं जो .....
पूर्णरूप से मोह में डूबा हुआ है ॥
एक मोहित ब्यक्ति कैसे गीता ज्ञान में वह भी आत्मा को समझनें में रूचि दिखा सकता है ?
यह आप के लिए एक सोच का बिषय है ....
आप इस पर सोचना प्रारंभ करें .....
कल फिर मिलेंगे ॥
===== ॐ =====
अध्याय सारांश
अध्याय एक में अर्जुन की दो बातें ऎसी हैं जो प्रभु को आगे उपदेश के लिए आकर्षित करती हैं ;
मोह के लक्षण और कुल- धर्म एवं जाती धर्म की बातें ।
अध्याय एक में तीन श्लोक - 1.28 , 1.29 , 1.30 अर्जुन के ऐसी श्लोक हैं जिनमें मोह के लक्षणों को
अप्रत्यक्ष रूप में बोला गया है ।
प्रभु श्री कृष्ण गीता में एक साँख्ययोगी के रूप मेंहैं और वैज्ञानिक का दूसरा नाम ही है - सांख्य - योगी ॥
अर्जुन जब प्रभु के सामनें कुल - धर्म एवं जाती - धर्म की बातें रखते हैं तब प्रभु कुछ बोलते तो नहीं हैं लेकीन
इन दो बांतों से हट कर कर्म - योग , ज्ञान - योग , संन्यास , त्याग एवं अन्य बाँतें उनकी चर्चा के बिषय बन जातेहैं ।
मोह गीता का बीज है और प्रभु मोह में डूबे अर्जुन को सबसे पहले बता रहे हैं -
आत्मा के सम्बन्ध में , यह
कहते हुए की .....
आत्मा अब्यक्त है , असोच्य है और इस को वह समझता है जो .....
मन - बुद्धि से परे की यात्रा पर हो ॥
आत्मा गुनातीत योगी का बिषय है और ....
प्रभु इसे ऐसे ब्यक्ति से बता रहे हैं जो .....
पूर्णरूप से मोह में डूबा हुआ है ॥
एक मोहित ब्यक्ति कैसे गीता ज्ञान में वह भी आत्मा को समझनें में रूचि दिखा सकता है ?
यह आप के लिए एक सोच का बिषय है ....
आप इस पर सोचना प्रारंभ करें .....
कल फिर मिलेंगे ॥
===== ॐ =====
Friday, December 3, 2010
गीता अध्याय - 02
भाग - 01
गीता अध्याय - 02 में आप का स्वागत है ॥
गीता - अध्याय - 02 में कुल 72 श्लोक हैं ;
जिनमें -----
प्रभु के 63 श्लोक हैं ......
अर्जुन के हैं - 06 श्लोक , और .....
संजय के हैं - 03 श्लोक ॥
इस अध्याय को सम्पूर्ण गीता का सारांश समझना
कोई अतिशयोक्ति न होगा ।
इस अध्याय के सूत्रों को चार भागों में विभक्त
करके समझा जा सकता है ,
जो कुछ इस प्रकार से हो सकते हैं ।
[क] सामान्य योग सम्बंधित सूत्र [ कुल 15 सूत्र हैं ]
[ख] गीता योगी एवं वेदों के सम्बन्ध के
सन्दर्भ
में कुल पांच सूत्र हैं ।
[ग] आत्मा से सम्बंधित कुल सोलह सूत्र हैं ।
[घ] और स्थिर प्रज्ञ से सम्बंधित कुल उन्नीश श्लोक हैं ।
आगे चल कर हम इस अध्याय के बहत्तर श्लोकों में
से पचपन सूत्रों को एक - एक करके देखेंगे ॥
आज बश इतना ही ॥
===== ॐ =====
Thursday, December 2, 2010
अहंकार की यात्रा और हम
सभी सम्प्रदायें कहती हैं ------
सब का मालिक एक लेकीन सभीं के अपनें - अपनें मार्ग हैं ,
अपनी - अपनी परम्पराएं हैं और
सब के अपनें - अपनें देवी - देवता और प्रभु की आस्थाएं हैं ।
गीता में प्रभु कहते हैं [ गीता अध्याय - सत्रह ] ......
तीन प्रकार के गुण हैं और तीन प्रकार के लोग हैं ।
सात्विक , राजस और तामस - तीन गुणों के लोगों की अपनी - अपनी आस्थाएं हैं ,
सब के अपनें - अपनें
साध्य हैं जिनको वे लोग कामना पूर्ति के लिए पूजते हैं ।
जिस दिन मनुष्य के दिमाक से ऎसी धारणा को निकालनें में वैज्ञानिक
कामयाब हो जायेंगे की
परमात्मा से कोई कामना की पूर्ति संभव नहीं , उस दिन
परमात्मा इंसान के लिए मर जाएगा ।
बीसवीं शताब्दी के मध्य में नित्झे का यह कथन की ----
परमात्मा मर चुका है , अब वह कभी नहीं उठनें वाला क्योंकि ......
इंसानों ने उसे मारा है -- सम्पूर्ण पश्चिम में एक क्रान्ति ला दी और लोग
ऐसा महसूश करनें लगे जैसे
अभी - अभी जेल से निकल कर अपनें - अपनें घर को आ रहे हैं ।
मनुष्य का अहंकार एक कुशल कारीगर है जो ......
आसक्ति
कामना
क्रोध
लोभ
मोह
भय और
भगवान् , सब का निर्माण करता है और ऐसे कुशल कारीगर
को मनुष्य छोड़ना नहीं चाहता ।
ग्वालिअर , मोरैना , भिंड आदि के इलाके के जंगलों से आप कभी गुजरें ,
जगह - जगह पर आप को छोटे - छोटे मंदिर मिलेंगे जिनमें से अधिक
होंगे काली माँ के , शिव के और हनुमानजी के ।
क्या आप सोचते हैं की ये देवी - देवता कभी किसी के बहू - बेटियों
को लूटनें के लिए आशीर्वाद देते होंगे ?
अपनें - अपनें अहंकारों को देखें और उनसे हट कर
अपना मार्ग निर्धारित करें
और तब देखें ----
जीवन यात्रा के रंग को ॥
==== ॐ ======
Tuesday, November 30, 2010
अहंकार की ज्वाला और ------
परमात्मा को हम दो में से किसी एक रूप में देखते हैं ;
[क] परमात्मा को खुश करके इच्छित कामाना की पूर्ति की जा सकती है ......
[ख] परमात्मा किसी के कर्म , कर्म - फल की रचना नहीं करता ।
परमात्मा सुख - दुःख का देता भी नहीं है ।
मनुष्यों में लगभग नब्बे प्रतिशाश से भी अधिक लोग यह
समझ कर प्रभु को नत मस्तक होते हैं
क्योंकि उनकी धारणा है - प्रभु के बिना कुछ संभव नहीं
अतः इनकेंन प्रकारेंन प्रभु को खुश रखनें में ही
भलाई है ।
आप ज़रा सोचना -----
एक तरफ हम यह भी समझते हैं की प्रभु बिना बताये
सब कुछ जानता है , प्रभु से कुछ भी छिपाना
संभव नहीं लेकीन इतना जानते हुए भी हम प्रभु को भी चकमा दिए बिना नहीं रहते ।
लोगों के मनोविज्ञान को समझिये ---
कोई करोड़ों का आसन भेट कर रहा है .....
कोई अपनी कंपनी की आमदनी का एक भाग नियमित रूप से
किसी निश्चित मंदिर में भेट के रूप में
चढ़ाया जाता है ।
परमात्मा यदि भौतिक बस्तुओं की प्राप्ति से खुश हो उठता है तो वह प्रभु की संज्ञा लायक नहीं ।
भोग यदि प्रभु को भी अपनी ओर खीचनें में सक्षम है तो वह खीचनें वाला प्रभु हो नहीं सकता ।
प्रभु सोना - चांदी के आभूषण नहीं चाहता , प्रभु चाहता है .....
तुम इंसान हो और इन्सार की मर्यादाओं का पालन करते रहो ।
प्रभु यह नहीं कहता ......
तुम मेरे लिए भी एक महल का निर्माण कराओ । प्रभु चाहता है ----
तुम ऐसे रहो की तेरे को देख कर अन्य जीव यह समझें की ----
हो न हो यह ब्यक्ति के रूप में प्रभु हो ॥
प्रभु के अंगों के रूप में इंसान है ।
प्रभु चाहता है की इंसान मेरे जैसा ही बन जाए और
प्रकृति - पुरुष के समीकरण को बनाए रखे ॥
===== ॐ ======
Saturday, November 20, 2010
प्रभु मय कैसे हों ?
प्रभु को सभी पाना चाहते हैं ----
प्रभु को सभी अपनें - अपनें घरों में बसाना चाहते हैं .....
लेकीन क्यों ?
क्यों की हम सब यह जानते हैं की ------
प्रभु एक बाई एक फूट की जगह में रह कर भी कुछ नहीं कहता ......
प्रभु लाची दाना खाकर भी हमारा काम करता है ......
रात को हम तो नजानें क्या - क्या खा - पी कर सो जाते हैं लेकीन प्रभु हर वक़्त जागता रहता है ....
चाहे हम कुछ भी कहें लेकीन प्रभु कोई जबाब नही देता ........
जब तक हमारी ऎसी धारणा है .....
तबतक .....
हम प्रभु मय कैसे हो सकते हैं ?
प्रभु मय होनें के लिए पहले स्वयं को गीता मय बनाना पड़ता है ....
गीता मय बननें के लिए .......
काम , कामना , क्रोध ----
लोभ , मोह , भय और ---
अहंकार की मूल को देखना पड़ता है ,
और .....
जब मूल कट जाती है , तब .....
वह ......
स्वयं प्रभु मय हो उठता है ॥
===== ॐ =====
Friday, November 19, 2010
गीता के मोती - 02
गीता के चार और मोती
गीता - 13.3
वह जिस से क्षेत्र - क्षेत्रज्ञ का बोध हो , ज्ञान है ॥
गीता - 4.38
योग चाहे कोई हो , सभी योगों की सिद्धि से ज्ञान की प्राप्ति होती है ॥
गीता - 4.35
ज्ञान से मोह समाप्त होता है ॥
गीता - 5.16
ज्ञान से सत का बोध होता है ॥
ध्यान के लिए आज ये चार सूत्र आप के लिए ......
====ॐ =======
Thursday, November 18, 2010
गीता के मोती
आप को गीता के चार मोतियों को आज मैं देनें का प्रयत्न कर रहा हूँ ,
आप देखना - यदि आप के काम लायक हो
तो रख लेना अन्यथा , मुझे वापस कर देना , वह भी बिना धन्यबाद के ॥
[क] श्लोक -5.10
आसक्ति रहित कर्म करनें वाला ठीक उस तरह से भोग तत्वों से
प्रभावित नहीं होता जैसे कमल के फूल की
पंखुड़ियां पानी से प्रभावित नहीं होती ॥
[ख] श्लोक - 5.11
कर्म - योगी अपनें तन , मन और बुद्धि से जो कुछ भी करता है ,
वह उसको और पवित्र बना देता है ॥
[ग] श्लोक - 3.7
कर्म - योगी वह है जो अपने इन्द्रियों का नियोजन मन से करता हो
और कर्म अनासक्त - भाव मवन करता हो ॥
[घ] श्लोक - 4.22
कर्म - योगी जो करता है , वह उसका गुलाम नहीं होता ॥
चार श्लोक और आप , अब आप इनको जैसे प्रयोग करना चाहें कर सकते हैं ॥
===== ॐ ======
Wednesday, November 17, 2010
कर्म और गीता - 03
गीता हम कुछ ऐसे सूत्रों को देख रहे हैं
जिनका सीधा सम्बन्ध कर्म से है ।
आज यहाँ ऐसे ही कुछ और सूत्रों को देखते हैं जो इस प्रकार हैं -----
गीता सूत्र -----
3.8
3.27
3.28
3.33
18.59
18.60
गीता के इन छः सूत्रों में प्रभु अर्जुन को बताते हैं ..........
कर्म के बिना तो कोई रह नहीं सकता ॥
कर्म तो करना ही है ॥
यदि कर्म में आसक्ति , कामना , क्रोध ,
लोभ , मोह और अहंकार के प्रभाव को धीरे - धीरे
कम करनें का अभ्यास किया जाए तो
एक दिन ऎसी स्थिति आ सकती है जब ----
कर्म में अकर्म ....
अकर्म में कर्म का बोध होनें लगे , और ऐसा बोध ही ......
कर्म -योग है ॥
कर्म करता मनुष्य नही होता , मनुष्य के
अंदर जो हर पल बदलता गुण समीकरण
होता है ,
वह कर्म - करता है लेकीन अहंकार
की ऊर्जा के प्रभाव में मनुष्य स्वयं को कर्म करता मान लेता है
जो एक
बुनियादी भ्रम है ॥
तीन गुण मिलकर .....
स्वभाव बनाते हैं ....
स्वभाव का मनुष्य गुलाम होता है .... और
स्वभावतः
कर्म होता है ॥
मनुष्य तो मात्र जो उससे हो रहा है .....
उसका द्रष्टा भर है ॥
द्रष्टा भाव ही होश है जिसको अंगरेजी में अवेयरनेस कहते हैं ॥
==== ओम ======
जिनका सीधा सम्बन्ध कर्म से है ।
आज यहाँ ऐसे ही कुछ और सूत्रों को देखते हैं जो इस प्रकार हैं -----
गीता सूत्र -----
3.8
3.27
3.28
3.33
18.59
18.60
गीता के इन छः सूत्रों में प्रभु अर्जुन को बताते हैं ..........
कर्म के बिना तो कोई रह नहीं सकता ॥
कर्म तो करना ही है ॥
यदि कर्म में आसक्ति , कामना , क्रोध ,
लोभ , मोह और अहंकार के प्रभाव को धीरे - धीरे
कम करनें का अभ्यास किया जाए तो
एक दिन ऎसी स्थिति आ सकती है जब ----
कर्म में अकर्म ....
अकर्म में कर्म का बोध होनें लगे , और ऐसा बोध ही ......
कर्म -योग है ॥
कर्म करता मनुष्य नही होता , मनुष्य के
अंदर जो हर पल बदलता गुण समीकरण
होता है ,
वह कर्म - करता है लेकीन अहंकार
की ऊर्जा के प्रभाव में मनुष्य स्वयं को कर्म करता मान लेता है
जो एक
बुनियादी भ्रम है ॥
तीन गुण मिलकर .....
स्वभाव बनाते हैं ....
स्वभाव का मनुष्य गुलाम होता है .... और
स्वभावतः
कर्म होता है ॥
मनुष्य तो मात्र जो उससे हो रहा है .....
उसका द्रष्टा भर है ॥
द्रष्टा भाव ही होश है जिसको अंगरेजी में अवेयरनेस कहते हैं ॥
==== ओम ======
Sunday, November 14, 2010
कर्म और गीता - 02
पिछले अंक में हमनें कुछ गीता सूत्रों को देखा ,
अब यहाँ कुछ और सूत्रों को हम ले रहे हैं ॥
सूत्र - 2.45
वेदों में गुण आधारित कर्मों के सम्बन्ध में बहुत प्रशंसा की गयी है
लेकीन ऐसे कर्मों को गीता बंधन कहता है
और यह कहता है .......
कर्म बंधनों से मुक्ति पाना ही निर्वाण है ॥
सूत्र - 3.5 , 18.11
कर्म मुक्त होना तो संभव नहीं क्यों की हर ब्यक्ति गुणों
द्वारा विवश किया जाता है ,
कर्म करनें के लिए लेकीन
कर्म में कर्म - फल की चाह न हो तो वह कर्म ,
मुक्ति का द्वार बन सकता है ॥
सूत्र - 8.3
वह जो निर्वाण का द्वार दिखाए , गीता का कर्म है ॥
आगे अगले अंक में कुछ और सूत्रों को दिया जाएगा ॥
===== ॐ ======
Saturday, November 13, 2010
कर्म के सम्बन्ध में गीता की क्या राय है ?
गीता में प्रभु श्री कृष्ण कर्म के सम्बन्ध में जो कुछ कह रहे हैं
उनमें से कुछ श्लोकों को हम यहाँ ले रहे हैं ॥
[क] श्लोक - 18.23
प्रभु कह रहे हैं :
गुणों के आधार पर कर्म तीन प्रकार के हैं ,
जबकी गीता सूत्र - 8.3 में प्रभु कहते हैं .....
भूत - भाव - उद्भव करः बिसर्ग: कर्म संज्ञित: अर्थात .....
प्रकृति में बनें रहनें के लिए जो किया जाए , वह है - कर्म ॥
[क-१]
भोग भाव के बिना प्रभु को समर्पित जोकर्म होते हैं , वे हैं - सात्विक कर्म ॥
[ख] श्लोक - 18.24
भोग भाव से परिपूर्ण कामना , क्रोध , मोह , भय , अहंकार की उर्जाओं से
जो कर्म होते हैं , वे हैं - राजस - कर्म ॥
[ग] श्लोक - 18.25
यहाँ प्रभु कहते हैं ......
ऐसे कर्म जिनके पीछे तामस गुण की ऊर्जा हो जैसे - मोह , भय
और आलस्य , उनको तामस कर्म कहते हैं ॥
गीता के सभी श्लोक इतनें मुलायम हैं की उनको भोगी जितना चाहे
उतना अपनी तरफ झुका सकता है ॥
अब आप देखिये गीता सूत्र - 8.3 को जिसमें प्रभु कहते हैं ----
भूत भाव उद्भव कर: विसर्ग: कर्म संज्ञित: --- इस श्लोकांश का आप
जो चाहें वह अर्थ लगा सकते हैं ॥
सर्ब्पल्ली राधाकृष्णन जो अर्थ लगाते हैं , उसे आपनें ऊपर देखा और मैं इसका जो अर्थ लगाता हूँ
वह है ---
वह कृत्य जो भावातीत की स्थिति में पहुंचाए , उसे कर्म कहते हैं ॥
कर्म एक सहज माध्यम है जो सब को मिला हुआ है जैसे .....
भूख लगनें पर पेट के लिए कुछ चाहिए , और इस कामना की पूर्ति अनेक तरह से हो सकती है ।
अपनी पीढी आगे बढानें के लिए काम का सहारा लेना पड़ेगा अतः काम का प्रयोग भी अनेक ढंगों से
हो सकता है । तन को नंगेपन से बचानें के लिए वस्त्र का प्रयोग करनें के भी अनेक ढंग हैं ।
सुरक्षा के लिए इस्तेमाल करनें की सामग्रियां भी अनेक हो सकती हैं ।
अब देखिये और समभिये ----
आप मनुष्य योनी में हैं , पशु योनी में नहीं जो मात्र भोग - योनी ही है ।
मनुष्य इस संसार में निराकार प्रभु को अपने कर्मों से साकार रूप में प्रदर्शित कर सकता है और
दूसरी ओर पशुओं की लाइन में खडा हो कर पशु भी बन सकता है ।
सारे बिकल्प हैं - मनुष्य के लिए , जो चाहे वह , वह चुन सकता है ॥
कर्म करता गुण हैं , गुणों में भावात्मक उर्जायें हैं जो कर्म करने की भी उर्जायें हैं अतः ......
कर्म माध्य से भावातीत कीस्थिति होगी - गुनातीत कीस्थिति जो ब्रह्म - ऊर्जा से भर देती है ॥
आप जो अर्थ चाहें गीता सूत्र - 8.3 का वह अर्थ लगा सकते हैं ,
बश इतनी होश बनी रहे की -----
आप प्रभु के आयाम से ज्यादा दूर नहीं हैं ॥
====== ॐ ======
गीता कहता है -------
[क ] कर्म तो करना ही पड़ेगा , कोई जीवधारी कर्म त्याग पूर्णतया नहीं कर सकता ॥
[ख] कर्म होनें के पीछे ------
[ख-१] कोई फल की आश न हो ॥
[ख-२] कोई कामना न हो ॥
[ख-३] कोई आसक्ति न हो ॥
[ख-४] कोई अहंकार न हो ॥
[ख-५] कोई क्रोध भाव न हो ॥
अब आप सोचिये , अच्छी तरफ से सोचिये ------
क्या जैसे हम हैं , उस स्थिति में ऐसे कर्म का होना संभव है ?
गीता यह भी कहता है ......
तुम कर्म करता नहीं हो , कर्म करता तीन गुणों में से कोई एक होता है ॥
गुण तत्त्व हैं .....
आसक्ति , कामना क्रोध , अहंकार , कर्म फल की आश आदि ॥
यदि कर्म गुण करते हैं ,
हम तो मात्र द्रष्टा हैं तो फिर ऐसा कर्म क्या .......
फल की आश बिना ...
कामना बिना ....
क्रोध बिना ....
अहंकार बिना हो सकता है ?
जी हाँ , हो सकता है ,
जब -----
हम भोगी से योगी बन जाते हैं ....
हमारे पीठ पीछे भोग होता है ....
हमारे सामनें प्रभु की किरण होती है ....
हमें सारा संसार ब्रह्म के फैलाव रूप में दिखता है .....
तब ऐसा कर्म ही होता है ॥
===== ॐ =======
Friday, November 12, 2010
कर्म - योग , ज्ञान - योग और भक्ति
गीता में योग के सम्बन्ध में निम्न शब्द मिलते हैं ------
सांख्य - योग .....
ज्ञान - योग ......
बुद्धि - योग .....
ध्यान .........
भक्ति ........
परा - भक्ति ......
छः बाँतें जो गीता कहता है , जैसा ऊपर दिया भी गया है , उनका आपसी क्या कोई समीकरण है ,
क्या कोई ऎसी स्थिति भी आती है , जहां सभीं मिलते भी हों ?
ऐसे लोग जिनका केंद्र है - बुद्धि , जो , जो करते हैं , उसके पीछे
तर्क - वितर्क की एक लम्बी फौज होती है ।
ऐसे लोग वैज्ञानिक बुद्धि वाले होते हैं ।
जब ऐसे लोग प्रभु की खोज में चलते हैं जैसे बुद्ध और महाबीर , जे कृष्णमूर्ति और ओशो ,
तब उनके पास
उनके आगे - आगे उनकी बुद्धि चलती है और उसके पीछे उनका तन होता है ।
कर्म तो सभी करते हैं - जो संन्यासी की वेश - भूषा में भिखारी बन कर
घर - घर भीख मांग रहे हैं , वह भी एक कर्म ही है , जो लोग फैक्ट्री में मशीनों के ऊपर
लगे हैं , वह भी कर्म है और जो रात में चोरी करनें का ब्लू - प्रिंट तैयार
कर रहे होते हैं , वह भी कर्म ही है ।
कुछ लोग कर्म को प्रभु मार्ग खोजनें का माध्यम बनाना चाहते हैं
जिसकी चर्चा प्रभु श्री कृष्ण , गीता में अर्जुन के साथ करते हैं ।
प्रभु कहते हैं - अर्जुन ! तूं इस युद्ध में भाग ले या न ले लेकीन यह युद्ध तो होना ही है ,
लेकीन भाग न लेकर तूं एक ऐसा मौक़ा गवा रहा है जो
किसी - किसी को कई जन्मों के बाद मिलता है ।
कर्म में उन तत्वों को समझना जिनके कारण वह कर्म हो रहा होता है ,
उस कर्म को भोग कर्म से योग - कर्म में बदल देता है ।
भोग कर्म जब योग - कर्म में
बदल जाता है तब वह करता रूप में दिखनें वाला , कर्म - योग में होता है
जहां वह कर्म के उन तत्वों की पकड़ को स्वतः छोड़ देता है जिसको
कर्म संन्यास कहते हैं और उन तत्वों का वह त्यागी बन जाता है ।
कर्म - तत्वों के प्रति जो होश होता है ,
उसे कहते हैं - ज्ञान अर्थात ------
कर्म - योग का परिणाम है ज्ञान और गीता कहता है ......
योग , चाहे कोई भी हो , सब की सिद्धि पर ज्ञान मिलता है ,
ज्ञान वह है जिस से ----
प्रकृति - पुरुष .....
क्षेत्र - क्षेत्रज्ञ ......
सत - असत .....
रात - दिन ......
रोशनी - अँधेरे का पता चलता है ॥
==== शेष अगले अंक में =====
------- ॐ --------
सांख्य - योग .....
ज्ञान - योग ......
बुद्धि - योग .....
ध्यान .........
भक्ति ........
परा - भक्ति ......
छः बाँतें जो गीता कहता है , जैसा ऊपर दिया भी गया है , उनका आपसी क्या कोई समीकरण है ,
क्या कोई ऎसी स्थिति भी आती है , जहां सभीं मिलते भी हों ?
ऐसे लोग जिनका केंद्र है - बुद्धि , जो , जो करते हैं , उसके पीछे
तर्क - वितर्क की एक लम्बी फौज होती है ।
ऐसे लोग वैज्ञानिक बुद्धि वाले होते हैं ।
जब ऐसे लोग प्रभु की खोज में चलते हैं जैसे बुद्ध और महाबीर , जे कृष्णमूर्ति और ओशो ,
तब उनके पास
उनके आगे - आगे उनकी बुद्धि चलती है और उसके पीछे उनका तन होता है ।
कर्म तो सभी करते हैं - जो संन्यासी की वेश - भूषा में भिखारी बन कर
घर - घर भीख मांग रहे हैं , वह भी एक कर्म ही है , जो लोग फैक्ट्री में मशीनों के ऊपर
लगे हैं , वह भी कर्म है और जो रात में चोरी करनें का ब्लू - प्रिंट तैयार
कर रहे होते हैं , वह भी कर्म ही है ।
कुछ लोग कर्म को प्रभु मार्ग खोजनें का माध्यम बनाना चाहते हैं
जिसकी चर्चा प्रभु श्री कृष्ण , गीता में अर्जुन के साथ करते हैं ।
प्रभु कहते हैं - अर्जुन ! तूं इस युद्ध में भाग ले या न ले लेकीन यह युद्ध तो होना ही है ,
लेकीन भाग न लेकर तूं एक ऐसा मौक़ा गवा रहा है जो
किसी - किसी को कई जन्मों के बाद मिलता है ।
कर्म में उन तत्वों को समझना जिनके कारण वह कर्म हो रहा होता है ,
उस कर्म को भोग कर्म से योग - कर्म में बदल देता है ।
भोग कर्म जब योग - कर्म में
बदल जाता है तब वह करता रूप में दिखनें वाला , कर्म - योग में होता है
जहां वह कर्म के उन तत्वों की पकड़ को स्वतः छोड़ देता है जिसको
कर्म संन्यास कहते हैं और उन तत्वों का वह त्यागी बन जाता है ।
कर्म - तत्वों के प्रति जो होश होता है ,
उसे कहते हैं - ज्ञान अर्थात ------
कर्म - योग का परिणाम है ज्ञान और गीता कहता है ......
योग , चाहे कोई भी हो , सब की सिद्धि पर ज्ञान मिलता है ,
ज्ञान वह है जिस से ----
प्रकृति - पुरुष .....
क्षेत्र - क्षेत्रज्ञ ......
सत - असत .....
रात - दिन ......
रोशनी - अँधेरे का पता चलता है ॥
==== शेष अगले अंक में =====
------- ॐ --------
Wednesday, November 10, 2010
ब्रह्म मय मार्ग
ब्रह्म के सम्बन्ध में हम गीता के सूत्रों को देख रहे हैं और इस श्रृंखला में
यहाँ कुछ और सूत्रों को देखते हैं ॥
गीता श्लोक - 13.13
अनादि मत परमं ब्रह्म न सत न असत ॥
अनादि ब्रह्म न सत है न असत है ॥
गीता - श्लोक - 13.31
यदा भूत पृथक - भावं एक स्थंम अनुपश्यति ।
तत एव च विस्तारं ब्रह्म संपद्यते तथा ॥
सभी जीवों को एक के फैलाव रूप एन जो देखता है , वह ब्रह्म मय होता है ॥
गीता श्लोक - 8.3
अक्षरं ब्रह्म परमं
अविनाशी ब्रह्म परम है ॥
==== ॐ ====
ब्रह्म को तत्त्व से जानो
अब हम गीता से ब्रह्म से सम्बंधित कुछ ऐसे श्लोकों को
ले रहे हैं जिनको गहराई से समझना
चेतन मय बना सकती है , तो आइये ! आप आमंत्रित हैं ,
गीता की इस पावन यात्रा के लिए ॥
गीता श्लोक - 7.5
अपरा इयं इतः तु अन्यां प्रकृतिं विद्धि में परां ।
जीवभूतां महाबाहो ययेदं धार्यते जगत ॥
प्रभु कह रहे हैं -----
मेरी दो प्रकृतियाँ हैं ; एक अपरा और दूसरी परा , परा प्रकृति जिसको चेतना नाम से भी जाना जाता है ,
वह संसार में जितनें जीव हैं , सबके जीवों को धारण करती है ॥
गीता श्लोक - 14.3
मम योनिः महत ब्रह्म तस्मिन् गर्भं दधामि अहम् ।
संभवः सर्वभूतानां ततो भवति भारत ॥
ब्रह्म सभी जीवों का बीज है , जिसको गर्भ में मैं रखता हूँ ।
गीता श्लोक - 14.4
सर्व - योनिषु कौन्तेय मूर्तयः संभवन्ति या: ।
तासां ब्रह्म महत योनिः अहम् बीज प्रद: पिता ॥
ब्रह्म निः संदेह जीवों के बीजों को धारण करता है लेकीन बीजों को उसे मैं ही देता हूँ ॥
गीता के यहाँ चार सूत्रों को एक क्रम में इस प्रकार से
आप को दिया गया है जिस से आप को
प्रभु , ब्रह्म एवं समस्त जीवो के सम्बन्ध को
समझनें में कोई कठिनाई न हो ॥
===== ॐ ======
Monday, November 8, 2010
ब्रह्म योगी की एक झलक
यहाँ हम देखनें जा रहे हैं गीता के पांच सूत्रों को :
सन्दर्भ सूत्र -----
18.51
18.52
18.53
18.54
18.55
सूत्र कह रहे हैं -----
** बिषयों के सम्मोहन - राग - द्वेष से अछूता , स्थिर बुद्धि वाला ......
** अल्प अहारी , तन , मन , वचन पर नियंत्रण हो जिसका ,
एकांत बासी हो जो ,बैराग्य में जो पहुंचा हुआ हो
और जिसको समाधी की अनुभूति हुई हो .......
** अहंकार रहित हो जो , शारीरिक बल का अभिमानी जो न हो , काम - क्रोध से अछूता हो जो ....
** समभाव वाला , परा भक्त हो जो ......
** ऐसा भक्त या योगी ब्रह्म स्तर का होता है
और मुझको तत्त्व से समझता है ।
===== ॐ =======
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